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________________ कटुकवचन मत बोल रे [१४६] और यहाँ उस दुख से मुझे मुक्ति मिल गई है। इसलिये मैं अधिक मोटा ताजा हो गया हूँ। अब राजा ने अपनी प्रश्नवाचक उष्टि दुर्बल हो जाने वाले पंडित की ओर डाली। पंडित ने उसका आशय समझकर कहा: ___ "महाराज! यहाँ तो मुझे भी किरी बात की तकलीफ और कोई कष्ट नहीं है, किन्तु मुझे अपनी पत्नी की स्मृति साया करती है। मेरी पत्नी अत्यन्त सुशील और मधुर-भाषिणी है। उसके द्वारा जो सम्मान, प्रिय वचन और इन सबसे प्राप्त सुख मुझे मिलता था वह यहाँ नहीं है - नित्यं मधुरवत्री च राम रमा न रमा रमा।" जो स्त्री निस्तर मधुरवाणी बोलत 1 है, वही साक्षात् लक्ष्मी रूप है। केवल धन-संपत्तिरूप लक्ष्मी को ही लक्ष्मी मत समझो: इसी कारण से मैं दुबला हो गया हूँ मत्रराज! और कोई बात नहीं है।" बंधुओ! आप भी समझ गए होंगे कि मधुर वचनों में कितनी शक्ति होती है। तीन योग माने जाते हैं। एक मनोयोग, दूसरा वचन योग और तीसरा काययोग। इन तीनों योगों में वचन योग बीच में है। पचन योग मन के भावों को भी समझता है तथा काय से भी कार्य करा लेता है। यह दोनों ओर चलता है, इसलिये इस पर अंकुश रखा जाना अत्यंत आवश्यक है। वचनों की कड़वाहट से ही वैर और विरोध का श्री गणेश होता है। वर्षों के स्नेह-सम्बन्ध को भी कटु-वचन क्षणमामें तोड़ डालते हैं। एक दोहे में कहा दूध फटा घी कहां गया, मन फटा गई प्रीत। मोती फटा कीमत गई, तीनों की एक ही रीत ।। कहते हैं - समझ में नहीं आता । के दूध फटते ही घी कहाँ चला जाता है? अर्थात् दूध फट जाने पर घी नष्ट हार जाता है। दूसरे प्रगाढ़ स्नेह जो वर्षों से चला आता है, वह भी कठोर वचनों के कारण मन के फटते ही विलीन हो जाता है। इसी प्रकार मोती के टूट जाने पर उसका मूल्य समाप्त हो जाता है। कवि का कथन है कि तीनों की एक ही रीति है। इसलिये बुध्दिमान पुरुषों को कटु-भाषा से सदैव बचना चाहिये। यह केवल आप श्रावकों के लिये ही नहीं है वरन् हा साधु-साध्वियों के लिए भी है। पाँच महाव्रत में दूसरा महाव्रत है - "सत्य केलो" पाँच समिति में दूसरी समिति है - 'कर्कश, कठोर, क्रोधयुक्त, मानयुक्त, एवं राग आदि दोषों से युक्त भाषा नहीं बोलना। इन्हीं सब दोषों को टालने के लिये "भाषा-समिति बनाई है। इनके अलावा तीन
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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