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________________ कटुकवचन मत बोल रे [१४२] ही वचन क्यों नहीं बोलने चाहिये? मीठे वचन बोलने में क्या नुकसान है। उससे कौन सी दरिद्रता आने वाली है? मीठे वचनों का बड़ा चमत्कारिक असर होता है। मनुष्य तो क्या पशु-पक्षी भी मधुर-वचनों से वश में हो जाते हैं। अनेक बार तो बिगड़ते हुए कार्य बन जाते हैं तथा घोर कलह भी शांत हो जाता है। क्रोध की अग्नि पर मधुर-वाणी और स्नेह-भरी दृष्टि शीतल जल का काम करती है। चंडकौशिक सर्प ने भगवान महावीर के पैर को डस लिया था किन्तु एभु की स्नेहामृत पूर्ण दृष्टि ने उसे सदा के लिये क्रोध-रहित बना दिया। इतना पविर्तन ला दिया कि उस विषधर प्राणी ने जीवन भर के लिये किसी को काटना ओड़ दिया तथा लोगों के फेंके हुए ईटों और पत्थरों की चोटों को सम-भाव से सऊन किया। चींटियों ने उसके सारे शरीर को चलनी के समान छेद युक्त बना दिया किन्तु उस प्राणी ने उफ तक नहीं की, एक भी चींटी की जान लेने का विचार उसके हृदय में नहीं आया। यह था केवल मधुरता का परिणाम ॥ वचनों का उचारण किस प्रकार करना चाहिये, इस विषय में हमारे धर्म-शास्त्र अनेक प्रकार से शिक्षाएँ देते हैं। किन्तु उन सबका मूल केवल यही है कि मानव सत्र मृदु-वचनों का प्रयोग करे, तभी वह अनेकानेक पुण्य-कर्मों का बंध करता हुआ अंत में उच्चगति प्राप्त कर सकता है। भगवान महावीर का कथन है : अवण्णवार्य च परम्मुहस्स, पच्चस्खओ पडिणीयं च भासं। ओहारिणिं अप्पियकारिणिं च भास न भासिज सया स पुजो। - दशवैकालिक सूत्र जो साधु-पुरुष किसी की भी प्रत्यक्ष या परोक्ष में निन्दा नहीं करता, तथा दूसरों को पीड़ा पहुँचाने वाली, निश्चयकारी और अप्रियभाषा नहीं बोलता वह पूज्य बनता है। वास्तव में ही अगर हम इतिहास को उलटें तो ज्ञात होता है कि जितने भी महापुरुष संसार में हुए हैं वे अपनी नम्रता, परोपकारिता और प्रिय-भाषिता के कारण ही महापुरुष कहलाए हैं। मुक्ति का मार्ग कौनसा? संत मेकेरियस बड़े त्यागी और तपस्वी संत थे। एक बार एक व्यक्ति ने उनके पास आकर कहा - "भगवन, मुझे मुक्ति का बिलकुल सीधा और सरल मार्ग बताइये!" सन्त ने कहा - "अच्छी बात है, तुम पहले कब्रिस्तान में जाओ और समस्त कबरों को खूब गालियाँ देकर आओ!" व्यक्ति संत की इस आज्ञा से चकित हुआ किन्तु बिना इस विषय में कोई प्रश्न किये उसने आज्ञा का पालन किया।
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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