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________________ कटुकवचन मत बोल रे [ १४० ] इसी प्रकार बहरे को बहरा और नपुंसक को नपुंसक या हिजड़ा कह दिया जाय तो उसे अत्यन्त दुख होता है तथा जनता का अनुभव होता है। कोई व्यक्ति रोगी है, व्याधिग्रस्त है, बीमार है, जन्म से ही उसे प्रतिदिन औषधियाँ पीनी पड़ती हैं। किन्तु उसे भी रोगला कह दिया जाय तो कितना दुख होता है। वह सोचने लगता है 'क्या मैं जानबूझ कर बीमा पड़ा हूँ? अपने पाप कर्मों के उदय को मैं क्या करूँ ? कितना आर्त-ध्यान पैद होता है उसके हृदय में? कई व्यक्ति तो रोगी के लिये कटु सम्बोधन ही नहीं, वरन् यह भी कह देते हैं 'मरे न माचो छोड़े।' कितनी कड़वी बात है कि न मरता है, और न माचा ही छोड़ता है। कहाँ तक सेवा करें? ऐसे शब्द बीमार को कितने कठोर लग सकते हैं। कमजोर दिलवाले का तो हार्टफेल ही हो जाय तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। कहने का अभिप्राय यही है कि कटुवचनों से और कटु संबोधनों से कभी-कभी बड़ा अनर्थ भी हो सकता है। - व्यक्ति कितना भी बुरा क्यों न हो, उसे बुरा संबोधन कभी प्रिय नहीं लगता । चोर चोरी करता है, और कभी-कभी तो प्राणियों का वध भी कर देता है, किन्तु उसे भी अगर चोर कहकर पुकारा जाय तो उसे रम्य नहीं लगता। इसीलिये शास्त्रकार कहते हैं कि तुम उसे चोर मत कहो। अपनी जबान को गन्दी मत करो! चोर अपने किये की सजा स्वयं भोगेगा। उसके कारण तुम अपने लिये कर्मोंका बन्धन मत करो। कटु वचनों को बोलकर जहाँ व्यक्ति निरिड़कमों का बंध कर लेता है वहाँ मधुर वचनों का प्रयोग करते हुए अपने आत्मा को इतनी निर्मल और विशुद्ध बना सकता है कि अंत समय में मुक्ति का अधिवतारी बन सके। इसीलिये महापुरुष न तो स्वयं ही केसी को कटु या मर्म घाती शब्द कहते हैं और न ही ऐसे व्यक्तियों की, जो कटु-गनषी होते हैं, संगति करते हैं। वे उपदेश भी यही देते हैं कि कपटी और कटुभाषी व्यक्तियों की संगति से बचो। उनका कथन है वचन मधुर रखे दिल में कपल भाव, तासे कर प्रीत मनभेद न उच्चार रे। बोलत कटुक मन मांही है साल भाव, ताका सुण बोल का क्रोध मन धार रे। अन्तर कपट और वचन कटुल होय, - ऐसी जन होय तावति संगति निवार रे, अमरिख कहै मन सरल मधु वेण, ताकी हित सीख भव-भव सुखकार रे ॥१॥ कवि के कथन का आशय यही है कि मनुष्य पर संगति का असर हुए संसर्ग में रहकर व्यक्ति अपने आपको कितना ही जाएगी। जैसे : बिना नहीं रहता। बुरे व्यक्तियों के भी बचाए, कुछ न कुछ बुराई उसमें आ
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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