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________________ • [१३९] कटुकवचन मत बोलो रे [१२] कटुवचन मत बोल रे धर्मप्रेमी बंधुओं, माताओं एवं बहनों! श्री रायप्रसेनी सूत्र में सूर्याभदेवता भगवान महावीर की स्तुति पूर्ण भावना के साथ करते हैं। वे केवल स्तुति ही नहीं करते, अपने आभियौगिक (चाकर) देवता को आज्ञा देते हैं "देवानुप्रिय ! भगवान महावीर प्रभु जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में आमलकप्पा नगरी में विराज रहे हैं, उनवे दर्शन करने जाओ। " मधुर सम्बोधन 'देवानुप्रिय' शास्त्रों में स्थान-स्थान पर श्रेणिक राजा था कृष्ण वासुदेव आदि का जहाँ वर्णन आता है, उनकी भाषा का पता चलता है। वे अपने सेवकों को भी किसी प्रकार का हुक्म प्रदान करते थे तो उससे पूर्व 'ठेवानुप्रिय' संबोधन से पुकारते थे। 'देवानुप्रिय' का अर्थ है - हे ठेवताओं के प्रिय ! महत्त्व शब्दों का नहीं है, शब्दों के पीछे रही हुई मधुर भावना का है। वाणी की मधुरता में असीम शक्ति होती है। मीठी जबान से जो काम निकल सकता है, कड़वी जबान से कभी नहीं निकलता। मनुष्य के नेत्रों में स्नेह कलकता हो, उसकी आकृति में सौम्यता हो, और संबोधन में मधुरता हो तो क्रूर से क्रूर पुरुष भी नम्र बन जाता है, उसका ह्रदय भी पिघल जाता है। 'दशवैकालिक सूत्र' के सातवें अध्ययन में भी संबोधन का बड़ा महत्त्व बताया गया है। लिखा : तव काणं काणित्ति पंडगं पंडगिति वा । वाहियं वा वि रोगित्ति, तेपं चोरिति नो वए । - दशवैकालिक सूत्र मनुष्य को चाहिये कि वह काने वत काना, नपुंसक को नपुंसक, बहरे को बहरा, व्याधिग्रस्त को रोगी तथा चौर्य कर्म करने वाले को भी चोर कहकर न पुकारे । यद्यपि काने व्यक्ति को काना कहना असत्य नहीं है किन्तु अप्रिय है। काना कहकर पुकारते ही उसके हृदय को दुःख लिंगा और लगेगा कि मेरा उपहास किया जा रहा है। काना कहने की बजाय अग 'भाई, सूरदास' कह दिया जाय तो व्यक्ति को उतना दुख नहीं होता।
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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