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________________ • [१३७] आनन्द प्रवचन : भाग १ "थोड़ी देर पहले ही इस सीधी सड़क की तरफ गया है।" सेठानी कुछ उदास होकर बोली। सेठजी पूरी बात सुने बिना ही गहने ले जाने वाले को ढूँढने के लिये बाहर भागे। पर प्रयत्न निष्फल हुआ, ठग मिला नहीं, और वे दौड़-भाग से क्रांत होकर वापिस लौट आए । महनों की चोरी का दुख सेठजी को बहुत हुआ किन्तु घर में धन की क्या कमी थी ? अतः धैर्यपूर्वक बोले "कोई हर्ज नहीं, जो धन गया वह लाली बाई के लेखे।" बंधुओ, क्या सेठ का सोचना सन्य था ? ठग के द्वारा ले जाया धन क्या लालीबाई के लेखे लग गया ? ठग भाग गया था, अगर पकड़ में आ जाता तो सेठजी उसे वापिस ले लेते या नहीं ? आप अब समझ ही गए होंगे कि ठगबाजी से गया हुआ धन दान खाते में नहीं जा सकता। इसी प्रकार व्यापार बन्धे में घाटा लगने पर और आसामियों में डूब जाने वाला धन भी दान खाते में लिख दिया जाय तो वह दान नहीं कहला सकता। दान केवल तभी कहलाता है, जब पैसे को या पदार्थ को इच्छा से दिया जाय । प्रसन्नतापूर्वक उसका त्याग किया जाय। त्याग और दान दोनों का सम्बन्ध है। इसके विषय में सत्य ही कहा है : " त्याग से पाप का मूल धन चुकता है और दान से पाप का ब्याज । " -विनोबा भावे इसलिये मानव को स्व-इच्छा और त्याग की भावना से दान देना चाहिये, तप करना चाहिये तथा अन्य जो भी क्रियाएँ की जायें अनासक भाव से ही करना चाहिये । उसे यह कभी नहीं भूलना चाहिये कि साँसारिक पदार्थों में मनुष्य कितनी भी आसक्ति क्यों न रखे एक दिन तो सब छूट ही जाएँगी। इसीलिए पूज्यपाद श्री अमी ऋषि जी महाराज ने संसार में अनुरक्त प्रत्येक अज्ञानी प्राणी को चेतावनी दी है : थिर ना रहेंगे यो गरुन ना रहेगी, मदपूर ना रहेगी देर घर में मित्रायगो । धन न रहेगोना रहेग 'निक्राम पन, यौवन ये तेरी छिन एक में किलायगो । करजे भलाई भाई, छोड़ी छत छंद मंद सज्जन ये देह तेरी आग में फिपायगो । कहे अमीऋषि चल्यो जायगो अकेलो तब तेरे हितवारो कोऊ संग ना जायगो ।
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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