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• यादृशी भावना यस्य
इस योग से भव-रोग सारे भील्की के भग गए।
लेती प्रथम चख बेर मीठा, राम को देती तभी । 'लक्ष्मण ! रसीले बेर यह' भगवान यों कहते जभी।
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भक्ति के आवेश में शबरी को यह भी भान न रहा कि मैं अपने जूठे बेर भगवान को खिला रही हूँ। बेर जूठे थे, किन्तु भावना कितनी उत्कृष्ट थी ? उस भावना के परिणामस्वरूप ही उसके कर्मों का नाश हुआ। भगवान को लगाया हुआ जूठे बेरों का भोग ही उसके भव रोगों के नाश का हेतु बन गया ऐसा रामायण में बताया गया है।
यह चमत्कार है भावना का निस्वार्थ भाव से किये गए नगण्य से आतिथ्य के द्वारा ही शबरी ने असीम लाभ हासिल किया। कर्म इसी प्रकार फल की आकांक्षा रखे बिना ही किया जाना चाहिये। कहा भी है
तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचार। असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुष : ||
-भगवत् गीता
-फल की इच्छा छोड़कर निरन्तर कर्तव्य कर्म करो जो फल की अभिलाषा छोड़कर कर्म करते हैं उन्हें अवश्य मोक्ष पद प्राप्त होता है।
निस्वार्थ भाव से किए गए कर्म ही शुभ फल प्रदान करते हैं। इसलिये बंधुओ, अपना कर्तव्य करते रहो। उसका फल क्या मिलेगा इसकी कल्पना मत करो! तुम्हारे पास सोना है तो उसकी वस्मित भाव आते ही अवश्य आएगी। वह निरर्थक नहीं जा सकता। आवश्यकता है तप, त्याग आदि समस्त शुभ- आचरणों को फल रहित और अनासक्त भाव से करने की।
नास्ति त्याग समं सुखम्
वस्तुओं का संयोग लेना ही सच्चा त्याग
त्याग के जैसा जीवन में और कोई सुख नहीं है। होने पर भी स्व-इच्छा से उन्हें त्याग देना, उनसे मुँह मोड़ कहलाता है तथा अपूर्व सुख का कारण बनता है। वस्तु के प्राप्त न होने पर, उसके विनष्ट हो जाने पर अपने आपको उनका छोड़ने वाला या त्यागी समझ लेना गलत है। त्याग उसे कहते हैं, जब इच्छा पूर्वक प्राप्त पदार्थों को छोड़ा जाय। किसी मजबूरी से पदार्थों का छूट जाना, त्याग करना नहीं कहलाता ।
उदाहरण स्वरूप, एक व्यक्ति अशुभ कर्म के उदय से बीमार पड़ा है। बीमारी के कारण उसने आठ दिन तक कुछ खाया पिया नहीं तो क्या उसकी 'अठाई' हो गई ? क्या आप उसके आठ दिन के खाने को आठ दिन की तपस्या मान लेंगे ? नहीं।
वास्ताविकता तो यह है कि उस व्यक्ति की खाने की इच्छा थी पर खाया