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कानन्द प्रवचन : भाग १
सच्चे भक्त ऐसे ही होते हैं। वे प्राशना में अन्तर नहीं मानते, चाहे वह किसी भी भाषा में क्यों न हो, वे भगवान में अन्तर नहीं मानते चाहे उनका नाम कुछ भी हो। वे कहते हैं :
राम कहो रहमान कहो कोउ, कान्ह कहो महादेव री। पारसनाथ कहो कोउ ब्रह्मा, सकल: ब्रह्म स्वयमेवरी। निजपद रमे राम सो कहिये, रहीम करे रहिमान री। कर्षे करम कान्ह सो कहिये, महादेश निर्वाण री। परसे रूप पारस सो कहिये, ब्रह्म जिन्हें सो ब्रह्म ।
इह विधि साधो आप आनन्दघन, तनमय निष्कर्म री। कितना सुन्दर पद्य है? कवि आनन्चन जी कहते हैं - अपने इष्ट को चाहे राम कहो, रहीम कहो, कृष्ण, महादेव, पार्श्वनाथ या ब्रह्मा कहो, कोई अन्तर नहीं है। आत्म-स्वरूप में रमण करे, वह राम है, रहीम अर्थात् प्राणियों पर दया करे वह रहमान है, कर्मों को काटने का प्रयत्न करे वह कृष्ण है, संसार मुक्त होकर निर्वाण प्राप्त करे वह महादेव, आत्म-स्व को स्पर्श करे वह पार्श्वनाथ, और आत्मा की ही पहचान करे वह ब्रह्म है। अर्की आत्मा ही भगवत-स्वरूप. चैतन्यमय और कर्म रहित है चाहे वह किसी भी नागधारी देह में क्यों न रहे और उसे किसी भी नाम से क्यों न पुकारा जाय।
आवश्यकता केवल यही है कि ईश-चिन्तन, भजन, प्रार्थना, पूजा, सेवा, परोपकार, दान, शील-पालन, तथा तपादि नित्याएँ अन्त:करण की निर्मल भावनाओं के साथ की जायें। महाराज क्या कहेंगे? इसलिये नहीं, या समाज के व्यक्ति क्या कहेंगे? इसलिये भी नहीं। महाराज या समाज की दृष्टि में धर्मात्मा दिखाई देने की भावना से जो किया जाएगा वह दिखावा होगा, उसका कोई मूल्य नहीं होगा, किन्तु अपनी आत्मा को विशुद्ध बनाने के लिए दिखावे से बचते हुए जो व्यक्ति भावना-पूर्वक थोड़ा भी कुछ करेगा उससे भी वह अधिक लाभ उठा सकेगा। जूठे बेरों ने मुक्ति दिलाई
आप सब जानते ही होंगे कि रामचन्द्र जी जब सीता की खोज में वन-वन भटक रहे थे, संयोगवशात् एक दिन शबरी वेर यहाँ जा पहुँचे। शबरी भीलनी थी। भगवान को देखकर उसकी खुशी का पार न रहा। तथा बावली-सी होकर वह राम के आतिथ्य का प्रयत्न करने लगी। पर आतिथ्य करने के लिये वहाँ क्या था? केवल बेरों की एक टोकरी, कुटिया में रखी थी। हर्षातिरेक में वह उसी को उठा लाई। और -
प्रभु के निकट ही बैठकर वह भीलनी भोली भली, देने लगी वह बेर चुन-चुन प्रेम-अमृत की डली। भिलनी खिलाने लग गयी, भगवान खाने लग गए।