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________________ • यादृशी भावना यस्य [१३२] नमाज तम हम सभी जो पढ़ते,मगर इतना है फर्क जो थरते। कोइ दिलों से कोई दिखाने, खुम्न की बातें खुदा ही जाने। खुदा की कुदरत को कौन जाने खुदा की बातें खुदा ही जाने। जिस प्रकार हमारे यहाँ सामायिक प्रतिक्रमण है, वैष्णव समाज में संध्या वंदन आदि हैं इसी प्रकार मुस्लिम समाज में नमाज है। भावना सब जगह एक सी है। सभी भगवान की ओर लौ लगाते हैं। फर्क केवल भाषा में है, भाव में नहीं। ___ नमाज पढ़ने वाले कहते हैं - खुदा! मैं गुनहगार हूँ, मेरे गुनाह माफ करो।' संध्या करने वाले भावना भाते हैं - "मेरे दिल के व्यवहार में जो भी हिंसा हुई है, मेरे द्वारा किसी प्राणी का दिल दुखाया गया है तो भगवान् मुझे क्षमा करो!" हम लोग प्रतिक्रमण में "मिच्छामि-दुक्कडं' लेते हैं, वह भी अपराधों की माफी मांगना ही है। बस, नाम सब अलग रखते हैं। कोई अपनी प्रार्थना को प्रार्थना कहता है, कोई संध्या और कोई नमाज, पर यह प्रयत्न पापों से छूटने के लिए ही हैं। सचे ह्रदय से और अन्त:करण की सम्पूर्ण भावना से प्रार्थना करने वाला व्यक्ति दिखावा नहीं करता वह अप्नो इष्ट के लिए उद्यत रहता है। चाहे वह हिन्दू हो, ईसाई हो, वैष्णव हो या मुसलमान हो। मैं यहूदी, हिन्दू और मुसलमान भी हूँ। मुहम्मद सैयद एक बड़े पहुँचे हुए फकीर थे। सम्पूर्ण परियह का उन्होंने त्याग कर दिया था और केवल खुदा की इबादत में ही अपना समय व्यतीत करते थे। वे सदा एक भजन गाया करते थे, जिसका पाव था-- "मैं सचे सन्त भक्त फुरकन का शिष्य हूँ। मैं यहूदी भी हूँ, हिन्दू भी हूँ और मुसलमान भी हूँ। मन्दिर और मसजिद में लोग एक ही परमात्मा की उपासना करते हैं। जो काबे में संगे -- असवद है वहीं दैऽ में बुत है।" सैयद की इन बातों के कारण अंक व्यक्ति उसके दोस्त थे और अनेक दुश्मन। दाराशिकोह इनका भक्त था, किन्तु औरंगजेब कट्टर दुश्मन। औरंगजेब दारा का भी शत्रु था। अत: वह सैयद साहब से चिढता था। एक बार उसने इन्हें पकड़वा मंगाया। धर्मान्ध मुल्ला जो कि औरंगजेब के पक्षपाती थे, उन्होंने सैयद साहब को धर्म-द्रोही घोषित कर दिया तथा सूली की सजा सुनादी। किन्तु सच्चे संत मुहम्मद सैय्यद अपनी सजा की बात सुनकर आनन्द में उछल पड़े और असीम उल्लास के साथ सूली पर चढ़ते हुए बोले -- "ओह! आज का दिन मेरे लिये बड़े सौभाग्य का है। जो शरीर अपने खुदा से मिलने में अब तक बाधक था, वह इस सूली की बदौलत छूट रहा है। मेरे दोस्त! आज तू सूली के रूप में आया है। पस्त किसी भी रूप में क्यों न आए, मैं तुझे पहचानता हूँ।"
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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