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________________ • यादृशी भावना यस्य [१३०) शरीर का व्यापार करती हो, पर तुम्हें इश्वर का भी ध्यान रखना चाहिये। अपने पास आने वाले को स्पष्ट समझा देना चाहिये कि तुम पैसे की भूखी हो। जब तक पैसा मिलेगा उससे सम्बन्ध रखोगी और पैसे के समाप्त होते ही धक्के देकर निकाल दोगी। साथ ही अपने पैसे को सत्कार्य में लगाओ और मन को ईश्वर की भक्ति में तन्मय करो।" वैरागी की जबान से इन उपदेशों को सुनकर वेश्या अत्यन्त प्रसन्न हुई और उसने अपने आपको बदल लिया। उस समय के बाद से ही उसने अपने पास आने वालों को समझाना प्रारम्भ किरण - "भाई! यहाँ क्यों आते हो? अपने पत्नी के अलावा किसी भी अन्य स्त्री का संसर्ग करना पाप है, आदि आदि।" अपने प्रयत्न के परिणामस्वरूप उस गणिका ने अनेक व्यक्तियों के चरित्र को सुधारा और अन्त समय में शुभ परिणति होने के कारण स्वर्ग प्राप्त किया। किन्तु वैरागी,जो कि धर्म-क्रियाएँ और धर्मोपदेश करता था, ब्रह्मचर्य का पालन करता था, अपनी मलिन भावनाओं के कारण एक में गया। यह चमत्कार था भावनाओं का। भावनाओं के कारण ही दोनों के कार्यकलाप भिन्न होने पर गति भी भिन्न हुई। उनकी गतियाँ उनकी क्रियाओं के अनुसार नहीं, वरन् भावनाओं के अनुसार हुई थीं। भावनाओं की शक्ति कितनी जबर्दस्त होती है इस विषय में हमारे शास्त्र कहते हैं - “य: सप्तमी क्षणार्धेन नायेद्धा मोक्षमेव च।" योगसार - मनोबल अथवा भावनाएँ इतनी। प्रबल होती हैं कि जिस आधे क्षण में भावनाओं की निकृष्टता के कारण सातवीं नरक का बंध पड़ सकता है, उसी आधे क्षण में कर्मों का सर्वनाश करके मोक्ष की प्राप्ति भी की जा सकती है। केवल भावनाएँ ही काफी नहीं है क्या? बन्धुओं! अनेक व्यक्ति कहते हैं। तथा आपके मन में भी ऐसे विचार आ सकते हैं कि अगर भावना में इतनी शक्ति है तो दान देने, शील पालने और तप करने में क्या लाभ है? केवल भावना हो काफी नहीं है क्या? भावना से हो तो सब कुछ सिद्ध हो सकता है। ऐसी बात नहीं है। दान-शील और तप के साथ-साथ ही भावनाएँ अत्युत्तम होनी चाहिए। दान, शील और तप ये कीन प्रकार के माल हैं। यह माल अगर आपके पास रहा तो कभी भाव के आते ही आप निहाल हो जाएँगे। आप मेरी बात समझ तो रहे हैं न? आपकी ही भाषा है यह! वैसे भाव-ताव की बात आप जरा जल्दी समझते हैं इसीलिए मैं आपको आपकी भाषा में समझाने का प्रयत्न कर रहा हूँ।
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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