________________
• [१२९]
आनन्द प्रवचन भाग १
पर आप जिस प्रकार बाह्य पदार्थों से धन कमा लेते हैं, ठीक उसी प्रकार शुभ- भाव आने पर आत्मा भी पुण्योपार्जन कर लेती है, अर्थात् पुण्य कमा लेती है।
पारमार्थिक दृष्टि से दान, शील और तप यह माल है। यह माल पास में रहेगा, और अगर भावना आ गई अर्थात्र भाव आ गया तो फिर बेड़ा पार ही समझो। कहा भी है :
"दान- शील- तप: संयुद भार्कन भजते फलम् ॥”
- मुक्ति मुक्तावली
भावना पूर्वक किया जाने वाला दान, शील और तप ही अपना श्रेष्ठ फल प्रदान करता है।
बिना भावना के किसी ने दान दिना, शील पाला और तप भी किया, तो भी वह उसमें कोई लाभ हासिल नहीं कर सकता। क्योंकि भावना के बिना ये सब कार्य केवल दिखावा बन कर रह जाते हैं।
स्वर्ग और नर्क
किसी नगर में एक वैरागी रहता था। उसके पड़ौस में एक वेश्या का मकान था। दोनों के बीच में केवल एक दीवार का ही अन्तर था। गणिका अपने शरीर का व्यापार करती थी, और वैरागी ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए लोगों को दान, शील तथा तपादि का महत्त्व समझाते हुए उन्हें सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता था। दोनों के व्यावहारिक जीवन में रात और दिन का अन्तर था।
किन्तु वेश्या यद्यपि शरीर का व्यापार करती थी पर उसकी भावना में यह था कि मैं कितना घृणित कार्य करती हूँ और यह वैरागी धन्य है जो ऐसे हीन कार्यों से अलिप्त रहकर धर्म साधना कर रहा है तथा लोगों को भी सत्पथ दिखा रहा है। वह धर्म की प्रतिमूर्ति उस बैरागी के दर्शन की भी आकांक्षा रखती
थी ।
दूसरी ओर वैरागी ब्रह्मचर्य तप की आराधना करता, जनता को धर्म का महत्त्व समझाता तथा अनेक धर्म क्रियाएँ करता हुआ भी गणिका के जीवन को सुखमय मानता था । तथा छुप-छुप कर उसके रूप-रंग व
साज-सज्जा को निहारा
करता था।
एक दिन मौका पाकर उसने वेश्या को पुकारा । वेश्या प्रसन्न हुई कि आज मुझे ऐसे धर्मात्मा पुरुष से बात करने का सुभवसर मिला। तब तुरन्त उसके समीप आ खड़ी हुई।
वैरागी का मन मलिन था और वह उसके सौन्दर्य से अपने नेत्रों को तृप्त करना चाहता था। किन्तु प्रत्यक्ष में उसने गणिका को समझाया - " यद्यपि तुम