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________________ • [१२५] आनन्द प्रवचन : भाग १ तहसीलदार ने स्वामी जी से पूछा, "आप बताईये, इसे कौनसा कठोरतम दण्ड दिया जाय?" स्वामी दयानन्द जी कुछ गंभीर होकर बोले - "इसे छोड दो, मैं संसार के प्राणियों को कैद कराने नहीं, मुक्त कराने आया हूँ।" क्रोध व बदले की भावना के त्याग का केतना सुंदर उदाहरण है? आधुनिक काल में कितने व्यक्ति ऐसे मिलते हैं? आज जो ईंट का जवाब पत्थर से दिया जाता है। धन-पैसे के मामले में मनुष्य एक कारे के खून का प्यासा बन जाता है। थोडे से पैसों के लोभ में पड़कर भी मनुष किसी के जीवन-दीप को बुझाने के लिए तैयार हो जाता है। ऐसे व्यक्तियों से पूछने की इच्छा होती है - नाग-सी फुकार लेकर आप आये है, दीप के निर्वाण का संदेश लाये हैं। पर बुझाने से प्रथम यह तो कहो अब क आपने कितने बुझे दीपक जलाये है ? बंधुओ, किसी का बुरा करना सरल है, कठिन है किसी का भला करना। आपको संतों के उपदेश से अपनी आत्मा को निर्मल और विकार रहित बनाने का प्रयत्न करना है। यही संत आपसे चाहते हैं। आपके धन माल के भूखे नहीं हैं, वे भूखे है भाव के। उन्हें कोई भी और जढावा नहीं चाहिए। केवल आपकी शुद्ध भावना चाहिये। साधू भूखा भाव का, धन का भूखा नाय। आपकी भावना को देखकर ही हमें संत्रोष होता है। सची भक्ति से तो भगवान भी वश में हो जाते हैं तो संतों को प्रसन्न करन, क्या बड़ी बात है? भगवान कहाँ रहते हैं ? एक बार श्रीकृष्ण से नारद ने पूछ लिया - भगवन्! आप कहाँ रहते हैं? कैसा प्रश्न पूछा, सीधा ही। वास्तव में इस कला में तो आप लोग बहुत होशियार होते हैं! तो नारद ने कृष्ण से उनके निवासस्थान के विषय में पूछा। और कृष्ण ने उत्तर दिया - 'मद् भक्ताः यत्र गायन्ति, तत्र किंष्ठामि नारद!' अर्थात् मेरे भक्त लोग जहाँ मुझे याद करते हैं, मैं वहीं रहता हूँ। भगवान पूजा में! एक बार नारदऋषि घूमते-घामते द्वारिका में आ पहुँचे। कृष्ण भगवान को खोजते हुए वे सीधे महल के अंदर तक चले गये। क्योंकि उनके लिए कहीं भी
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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