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आनन्द प्रवचन : भाग १
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मंगलमय धर्म-दीप
धर्म प्रेमी बंधुओं! माताओं एवं बहनों!
धर्म जीवनके लिये मार्ग-दर्शक दीपवर के समान है। धर्म-दीप की सहायता से ही मानव अपने वास्तविक कर्तव्य-पथ पर अग्रसर हो सकता है। जिस प्रकार दीपक स्वयं प्रकाशित होता है तथा अन्य समस्त पदार्थों को भी प्रकाशित करता है, उसी प्रकार विवेकवान् व्यक्ति धर्म का अनपायी बनकर अपनी आत्मा को उज्जवल बनाता है तथा औरों का भी पथ-प्रदर्शक बनाता है। जब तक मनुष्य के अन्त:करण में धर्म की ज्योति नहीं जलती, उसका समस्त आचार-विचार और क्रिया-कलाप निरर्थक साबित होता है। तथा वह आत्म-भक्ति के मार्ग पर एक कदम भी नहीं बढ़ पाता। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार घानी चलानेवाला बैल सारे दिन चलकर भी वहीं का वहीं रहता है। आज का विलक्षण युग
दुःख की बात है कि आज के गा में धर्म उपेक्षा की वस्तु बन गया है। मानव भूल गया है कि इमारा भारतवः धर्म-प्रधान होने के कारण ही एक महान् देश कहलाता आ रहा है। अगर मानवीय संस्कृति के इतिहास को उलटा जाय तो स्पष्ट हो जाता है कि जब संसा के अन्य समस्त देश और समस्त जातियाँ असभ्य और असंस्कृत दशा में पशुधों के समान अपना जीवन-यापन कर रही थी, उस काल में भी भारतवर्ष धर्म एवं संस्कृती के उच शिखर पर था।
इस युग के आदिकाल में भगवान् ऋषभदेव ने जैनधर्म की स्थापना की तथा उनके द्वारा संस्थापित जैनधर्म की गरिमा का भगवान महावीर ने संवर्धन किया। उसके पश्चात् भी भगवान के शिष्यों ने इस देश में भ्रमण करते हुए इसके एक छोर से दूसरे छोर तक धर्म का प्रसार व प्रचार किया। तथा समग्र संसार पर धर्म की तथा इस धर्म-प्रधान भारत की महत्ता अमित की।
किन्तु आज के इस विलक्षण युग में पाश्चात्य देशों का शासन और प्रभाव होने के कारण हमारे देशवासियों में भी उन्हीं के जैसे विचार घर कर गए। पश्चिम में धर्म का स्थान अत्यन्त गौण है। वहाँ पर हर्म को जीवन का प्रधान और महत्वपूर्ण अंग नहीं माना जाता। इसलिए आज हमारे यहाँ भी धर्म उपेक्षा की वस्तु बन गया है। इतना ही नहीं, अनेक व्यक्ति तो इसे पारस्पारिक कलक का मूल कारण कहकर इसका बहिष्कार करने का उपदेश देने से भी नहीं चूकते।