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________________ आनन्द प्रवचन : भाग १ है। डम-डम का शब्द सुनकर मनुष्यों की मौड़ इकट्ठी हो जाती है और बड़ी रुचि से बाजीगर का खेल देखती है। किन्तु उसका खेल, अथवा तमाशा जब खत्म हो जाता है, मिनिटों में जनता तितर-बितर हो जाती है। एक भी व्योते वहाँ दिखाई नहीं देता और बाजीगर जिस प्रकार अकेला आता है उसी प्रकार अकेला अपने स्थान पर लौटता है। इसी प्रकार, जब तक पुण्य मनुष्य के पास होते हैं, तब तक सभी उससे अपनत्व दिखाते हैं। और उसका साथ देते हैं। किन्तु पुण्य-बल समाप्त होते ही कोई बात नहीं पूछता और कोई भी सहायक नहीं बनता। यह बात केवल इस पृथ्वी पर रहने वाले प्राणियों के लिए ही न है। देवताओं के लिए भी है। भगवत् गीता में स्पष्ट उल्लेख है। "क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोक विशन्ति।" जब देवताओं के पुण्य क्षीण हो जाते हैं। तो उनको भी अपने समस्त सुखों का त्याग करके मृत्यु लोक में आना म्ड़ता है। सारी सुख-सामग्री और अतुल ऐश्वर्य का त्याग करना पड़ता है। इसीलिए महापुरुष हमें चेतावनी देते हैं कि जब देवताओं को भी पुण्य- बलक्षीण होने पर अपनी रिद्धि-सिद्धि को छोड़ना होता है तो फिर मनुष्यों को तो बिसात ही क्या है ? उनके साथ पुण्य कब तक रहेगा? किं कर्तव्यम् ? पुण्योदय होने पर समस्त प्रकार के सुखों का अनुभव हो, और उसके अभाव में विपदाओं के पर्वत मस्तक पर हट पड़ने को हो तो ऐसी स्थिति में क्या करना चाहिये यह श्री तिलोकऋषी जी महाराज अपने पद्य में आगे बताते सुन सुगुणारे तुम धर्म-ध्यान नित करलो ! तुम त्यागो पंज प्रमाद भवोदधि तर लो! कितनी सत्य, स्पष्ट और सुन्दर कौख है? कहा है - हे गुणज्ञ बंधु!, तुम पांचों प्रमादों का त्याग करो और धर्म का आराधन करते रहो। इससे तुम्हारी आत्मा पाप और पुण्य, दोनों से ऊपर ऊ जायेगी। पापों के परिणामस्वरूप होने याले दु:खों और यातनाओं का भय नहीं झंडेगा तथा पुण्य-बल के क्षीण होने की फिक्र नहीं होगी। पाँच प्रमादों का परित्याग करके धर्म-रूपी जहाज का आश्रय लेकर तुम भवोदधि को पार कर लोगे, उस किनारे पर पहुंच जाओगे! इस प्रकार संसार में केवल धर्म ही ऐसा आधार अथवा आश्रय है जिसकी सहायता से मुमुक्षु प्राणी जन्म-मरण के ना-पाश से अपनी आत्मा को मुक्त कर सकता है तथा शाश्वत सुख को प्राप्त करने में समर्थ बनता है। इसलिए धर्म को ग्रहण करना, अर्थात् जीवन को धर्म-मय बनाना ही मनुष्य का प्रथम और अनिवार्य
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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