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________________ • जाणो पेले रे पार [११२] कर्तव्य है। त्यागो पंच प्रमाद... धर्माराधन करना आत्मार्थी के लिए आवश्यक है, यह तो आपने समझ ही लिया। किन्तु उसका आराधन कैसे किया जाय? अब यह जानना है। पूज्यपाद कवि श्री तिलोकऋषि जी महाराज ने इस भी अपने पद्य में समझाया है। वह इस प्रकार कि धर्माराधन के लिए सर्वप्रथम 1 पंच प्रमादों का त्याग किया जाय। पाँच प्रमाद कौन कौन से हैं? यह एक श्लोक द्वारा बताए गये हैं - __ “मजं विसय कसाया, निहा निकहा य पंचमी भणिया। एए पंच पमाया, जीवं पाईति संसारे।" - मद, (अहंकार) विषय, कषाय, निद्रा, तथा विकथा, ये पांचों प्रमाद जीव को संसार में भटकाते हैं। अहंकार अहंकार की भावना मानव के वन को पतन की ओर ले जाती है। जब तक मनुष्य के हृदय में यह बनी राती है, तब तक वह कोटि प्रयत्न करने पर भी आत्मोन्नति नहीं कर सकता। जीन की संपूर्ण साधना को गर्व मिट्टी में मिला देता है। आत्मा के उत्थान में जो भाधक कारण होते हैं, उनमें सबसे मुख्य कारण अभिमान ही है। बाबलि के विषय में आप जानते ही हैं, घोर तपस्या करने पर भी उन्हें केवल एक ही कारण से केवलज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकी थी। कौन सा था वह कारण? एक था मात्र 'अभिमान'। अभिमान का सूक्ष्म सा अंश ही उनके और कैवल्य के बीच में महाकाय पर्वत बनकर खड़ा हो गया। उसका त्याग करते ही उन्हे ज्ञान की प्राप्ति हो गयी। शास्त्रकारों ने अहंकार को आठ मानवाले विषधर भुजंग के समान बतलाया है। अर्थात अभिमान आठ प्रकार का होगा है। जाति का, लाभ का, कुल का, ऐश्वर्य का, बल का, रुप का, तप का प्रथा ज्ञान का अहंकार मनुष्य करता है। ये सभी अथवा इनमें से कोई भी एक पद मनुष्य को ज्ञानहीन और विवेकशून्य बनाकर छोड़ता है। जाति के मद ने चिरकाल से ही वेनाश का ताण्डव नृत्य किया है। हमारा इतिहास बताता है कि जाति के मद में उन्धे होकर अगणित हिन्दू और मुसलमानों ने एक दुसरे को इस धरती पर से उठाया है, मौत के घाट उतारा है। __ ऐश्वर्य और लाभ का मद भी मानव को कितना हृदयहीन बना देता है, यह हमारे महायुद्धों से स्पष्ट हो गया है कि इस पृथ्वी पर हुए हैं। ऐसे भयंकर
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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