SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ · जाणो पेले रे पार [१] जाणो पेले रे पार हमारे महापुरुषों ने संसार को सगार माना है। जन्म जन्मान्तरों से आत्मा इस सागर में डूबती उतराती चली आ ही है। अतः मुमुक्षु प्राणी इसे पार करने का, इसके अगले किनारे पहुंचने का प्रयत्न करता है। साधारणतया नदी और तालाब आदि को पार करने के लिए यात्री जिस प्रकार नाव का सहारा लेता है, उसी प्रकार संसार सागर को पार करने की इच्छा रखने वाला साधक धर्म रूपी जहाज का आश्रय ग्रहण करता है। किन्तु अगर उसकी पुण्यवाणी प्रबल हो तभी उसका जहाज भव सागर के तूफानों और भंवरों को सामना करता हुआ आगे बढ़ सकता है। पुण्यवानी का साथ कब तक ? दो दिन से हमारे यहाँ पुण्य दशा का वर्णन चल रहा है। पुण्य के बल पर मनुष्य को किस प्रकार शुभ संयोग और सभी प्रकार के उत्तमोत्तम साधन उपलब्ध हो जाते हैं तथा गलत कार्य जो करे तो सही हो जाता है, यही सब हमने समझा था । किन्तु अब हमें यह देखना है कि पुण्य का साध रहता कब तक है? तब तक ही, जब तक कि उनका उदय हो। पुण्य बल क्षीण होने पर हरिश्चंद्र जैसे राजा को भी चांडाल के घर सेवक बनना पड़ा और अयोध्या के उत्तराधिकारी राम को वन-वन भटकना पड़ा। कहने का अभिप्राय यह कि पुण्य दशा स्थायी नहीं होती। उसके समाप्त होते ही सभी सुयोग्य, सभी साधन और संक्षेप में सभी सांसारिक सुख पानी के बुलबुले के समान विलीन हो जाते हैं। पूज्यपाद श्री तिलोक ऋषि जी महाराज ने अपने भजन में पुण्य दशा का वर्णन बड़े ही सरल और सुन्दर ढंग से किया है। उन्होंने कहा है - "बाजीगर जो बाज मचावै वे धाई, डुमडुमको सुन शब् खलक जुड़ जाई होय तमाशो बन्द सभी भग जांबे, बाजीगर निज ठाम अकेलो जावे। [११०] सुन सगुणा रे तुम धर्म - ध्यान नित करलो, तुम त्यागो पंच प्रमात भवोदधि तरलो! महाराज श्री ने पुण्यबल को एक बाजीगर के दृष्टांत से समझाया है। किसी भी नगर में बाजीगर आता है और अपकी कला दिखाने से पहले डमरू बजाता
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy