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आनन्द प्रवचन : भाग १ भी पाप हो जाने पर उसका अविलम्ब निराकरण कर लेना चाहिए। प्रायश्चित्त कर, हलके बनो!
बंधुओ, पाप चाहे छोटा हो या बा, उसे स्वच्छ मन से प्रकट कर देना चाहिए। पुण्य और पाप दोनों में यह खातिपयत है कि इन्हें जितना भी छिपाया जाय, उतने ही बढ़ते हैं और जितना भी प्रकाशित किया जाय, उतना ही इनका नाश होता है। इसलिये पुण्य को प्रकाशित नहीं करना चाहिए, तथा पाप को छिपाना नहीं चाहिए।
पाप के बोझ को आप चाहे जितने समय तक अपने ऊपर लादे रहें, अंत में तो इसका फल भुगतना ही पड़ता है। तब फिर क्यों न इस भार से शीघ्र छुटकारा पा लिया जाय? आप जानत हैं कि पापों से छुटकारा कैसे मिलता है? प्रायश्चित्त से। अगर मनुष्य सच्चे मन से अपने पापों के लिए प्रायश्चित करे तो उसके पाप धुल सकते हैं। पर वह यश्चित्त सर्वान्तःकरण से होना चाहिए। क्योंकि पाप प्रायश्चित्त से नष्ट होते हैं। पर वह प्रायश्चित्त के दिखावे से नहीं। लोग व्रत, उपवास तथा अन्य अनेक प्रकर के धर्माचरणों का दिखावा करते हैं। किन्तु उनसे पापों का नाश नहीं होता। उनकी भक्ति बगुला भक्ति कहलाती है। जैसे -
इक बगुला बैठा तीर, ध्यान वावंत नीर में, लोग कहे वाको चित्त, बस्यो रफुधीर में। वाको चित्त मछलियाँ पाय जीवकी घात है,
पण हाँ, वाजिन्द दगाबाज को नहीं मिले रघुनाथ है। वास्तव में, यह दृढ़ सत्य है कि डोंगी व्यक्ति कितना भी पूजा-पाठ, व्रत, सामायिक, जप, तप और भक्ति का दिखया करे, उसे मुक्ति नही मिल सकती। इसी प्रकार प्रायश्चित्त के आडम्बर से पापों का नाश नहीं होता। उससे लाभ के बदले हानि ही होती है। पापों का नाश काने के लिए तो मनुष्य को अनेक जन्मों तक भी प्रायश्चित्त करना पड़ सकता है और तब कहीं उसके पाप नष्ट हो सकते हैं। पर दिखावा करने वाला व्यक्ति एक जन्मा में ही और वह भी दिखावटी प्रायश्चित्त करे तो भला उसके पाप कैसे नष्ट होंगे?
इसलिए बंधुओ! चाहे प्रायश्चित्त लिया जाय या धर्म - क्रियाएँ, सचे मन और पूर्ण निष्ठा से की जानी चाहिए। तभी। अशुभ कर्मों का नाश और शुभ कर्मों का उपार्जन हो सकता है। और आत्मा को सच्चे सुख और संतोष की अनुभूति हो सकती है। समय हो चुका है किन्तु धन्त में मैं आपसे एक और आवश्यक बात कहना चाहता हूँ।