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________________ • करमगति दारि नहिं दरे [१०६] "कब ?" नर्तकी ने अधीरता से पूछा । "उपयुक्त समय होने पर।" कहकर भिक्षु चल दिया। कुछ समय बाद अपने दुराचार से भयंकर रोग का शिकार वासवदत्ता मार्ग पर निराश्रित पड़ी थी। शरीर पर फटे चीथड़े थे और उस पर हुए असंख्य घावों से दुर्गंध निकल रही थी । एकाएक वही भिक्षु उधर से निकला और वासवदत्ता के समीप आकर बोला - "भद्रे! मैं आ गया हूँ।" "कौन ? भिक्षु उपगुप्त ?" तुम अफ आए हो? मेरे पास अब क्या रखा है ? यौवन, सौन्दर्य और धन, सभी कुछ तो नष्ट हो गया।" नर्तकी ने बड़ी कठिनाई से उसकी ओर देखते हुए कहा। "मेरे आने का समय तो अभी हुआ है।" कहते हुए भिक्षु उपगुप्त ने नर्तकी के धावों को धोना प्रारम्भ कर दिया। इसे ही वैयावृत्य कहते हैं। संसार के किसी भी महापुरुष के जीवन को हम देखें, तो पाएँगे कि उनके जीवन में पर रोवा एक मुख्य कर्तव्य बना हुआ रहा है। निस्वार्थ सेवा का व्रत जो व्यक्ति अंगीकार करते हैं वे आत्मकल्याण तो करते ही हैं। साथ ही संसार के सन्मुख शुभ कर्मों के उपार्जन का अनूठा आदर्श भी उपस्थित कर जाते हैं। इस प्रकार दान एवं सेवा आदि के द्वारा जहाँ शुभ कर्मों का बंध होता है, वहाँ शील, तप और भावना के द्वारा कर्मों की निर्जरा भी होती जाती है। जिस जीवन में इन सब गुणों का समावेस होता है वही जीवन कर्ममय जीवन कहलाता है। और जब जीवन कर्ममय बन जाता है तो प्राणी पापों से स्वतः ही भयभीत होने लगता है। पुण्य जीवन का विकास करता हुआ उसे मोक्ष प्राप्ति की दिशा में अग्रसर करता है तथा पाप इसके विपरीत जीवन को अधःपतन की ओर उन्मुख करता है, अनन्त सुख से दूर ले जाता है। पुण्प का परिणाम सुख है और पाप का परिणाम है दुख । कहा भी है सुचिणा कम्मा, सुचिण्णा फला हवंति । दुचिण्णा कम्मा, दुचिण्णा फला प्रति ।। शुभ कर्म का फल शुभ है। और अशुभ कर्म का फल अशुभ है। अशुभ कर्मों के बंध से अपने आपको बचाने के लिए आवश्यक है कि मन में पाप भावना को न आने दिया जाए। किन्तु छद्मस्थ होने के कारण पाप भावना का मन में आना और पापों का हो जाना असंभव नहीं है। अतः कोई
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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