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________________ • [१०३] आनन्द प्रवचन : भाग १ अतिथि के रूप में कौन सन्त-महात्मा अथवा भगवान स्वयं ही तुम्हारे द्वार पर आ जाएँ। इसलिये और कुछ अधिक न बन सके तो शीतल जल और फल-फूल से ही उसका स्वागत करो। ऐसा कवि ने काव्य में कहा है। पर, कंजूस व्यक्ति इस बात का कहाँ ध्यान रखता है? वाह तो धन को ही सर्वस्व और अपना भगवान समझता है। तथा जब तक जीवित रहता है, 'चमड़ी जाए पर दमड़ी न जाए' वाली कहावत को चरितार्थ करता रहता है। पद्य में तीसरी चीज पतिव्रता के शील की आती है। शीलवती स्त्री के सतीत्व को भी उसके जीवित रहते हुए को भंग नहीं कर सकता। महारानी धारिणी ने शील की रक्षा के लिए अपनी जबान श्रींचकर चन्द मिनिटों में प्राण त्याग दिये थे। चित्तौड़ की महारानी पद्मिनी ने अलाउद्दीन के आतंक और कुदृष्टि के कारण जौहरखत अपना लिया था। उसके साथ ही अन्य चौदह हजार रानियों ने भी अग्निस्नान कर लिया किन्तु अपने शरीरों को अन्य ला स्पर्श नहीं होने दिया। तभी तो नारी जाति के लिए कहा जाता है : नारी तुम केवल श्रध्दा हो, विश्वास रचत नग पगतल में। पीयूष श्रोत सी बहा करो, जीका के सुन्दर समतल में। वास्तव में ही स्त्री पुरुष की मासे महान शक्ति के रूप में होती है। उसके बल पर ही वह अनेकानेक संकटों का सामना करता हआ अपने उद्देश्य की ओर बढ़ता है। और तो क्या, मुझे का कहने में भी अतिशयोक्ति नहीं दिखाई देती कि मानव को सच्चे अर्थों में मानव बनाने वाली एकमात्र नारी ही है। एक पाश्चात्य विद्वान का कथन भी है :"Man have sight, women have insight." -विक्टर ह्यू गो मनुष्य को दृष्टि प्राप्त होती है पर नारी को दिव्यदृष्टि । अपनी इस दिव्यदृष्टि के कारण वह छाया की तरह पुरुष की जीवन संगिनी बनकर रहती है तथा समय-समय पर उसे पतन के मार्ग पर जाने से रोकती है। पुत्री, बहन, पत्नी तथा माता के रूप में वह अपनी चहुँमुखी प्रतिभा से मनुष्य का मार्गदर्शन करती है। त्याग, उदारता, प्रेम, सहिष्णुता, सेवा, वीरता और बलिदान का आदर्श उपस्थित करके आग्ने उत्तमोत्तम गुणों से संसार को अभिभूत करती है। ऐसी महिमामयी नारी के धर्म का उसके प्राण रहते कौन नष्ट कर सकता पद्य में आगे उल्लेख है केसरीसिंध की मूंछ के बाल का। वनराज सिंह की मूंछ के बाल को उसके जीते जी कोई उखाड़ने की हिम्मत नहीं कर सकता और मणिधारी सर्प के मस्तक की मणि भी बिना उसके निष्प्राण हुए कोई छीन
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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