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· करमगति टारि नाँहि टरे
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नहीं सकता। यद्यपि उस मणि को प्राप्त कन्फ्रे की मनुष्य में कितनी उत्कट अभिलाषा होती है। सर्प के काटने पर जिसको फेस ही विष समूल नष्ट हो जाता है, ऐसी प्रतिभाशाली वस्तु को कौन लेना नहीं चाला ? पर मिले कैसे ? विषधर भुजंग की बांबी में हाथ डालने की हिम्मत किसकी हो सक्ती है ?
हारिये न हिम्मत बिसारिये न राम !
हाँ तो मैं कह यह रहा था कि शत्येक प्राणी को अपूर्व दृढ़ता और साहस से अशुभ कर्मों के उदय होने पर उनका मुकाबला करते हुए शुभ कर्मों का उपार्जन करना चाहिए। प्रायः देखा यही है कि थोडी कठिनाईयों और संकटों का आगमन होते ही मनुष्य जीवन से निराश हो जाता है। अत्यधिक आर्तध्यान के कारण उसकी हिम्मत और साहस नष्ट हो जाते हैं। आध्रा की कोई भी किरण उसे दिखाई नहीं देती । यह अज्ञानता का लक्षण है। उसे यह नहीं भूलना चाहिये कि अशुभ कर्मों का उदयकाल समाप्त हो जाने पर पुनः शुभ कर्मों का भी उदय होता है। अगर पल्ले में दे हैं तो इसलिए अशुभ के उदा होने पर प्राणी को आर्तध्यान न करते हुए अपने मन को बोध देना चाहिए :
चेतन रे तू ध्यान आरत काँई धावे ! सुख न रह्यो तो दुख किम रहसी ?
म कहिचित गुजरावे
साहूकार शिरोमणि सोही,
हर्ष से कर्ज चुकावे..। चेतन रे
जैसा कि पद्य में कहा गया है धशुभ कर्म एक कर्ज के समान है, जिन्हें चुकाना अवश्य पड़ता है, किन्तु चूक जाऊ पर आत्मा का बोझ हलका हो जाता है। अतः उस कर्ज को चुकाते समय ज्ञान पुरुष को आर्तध्यान नहीं करना चाहिए। अन्यथा पुराना ऋण चुकाते चुकाते नया गेर सिर पर हो जाएगा। जो महामानव उपसर्गों और परिषहों में समभाव रखते हुए कर्मों की निर्जरा करते जाते हैं, वे ही मुक्ति धाम के अधिकारी बन सकते हैं।
पद्य में कितने सुन्दर और सत्य भाव हैं कि बाँधे हुए कर्म अपना फल देकर तुरन्त अलग हो जाते हैं अतः उनमें न घबराते हुए सम भाव रखकर निष्काम निर्जरा करनी चाहिये ।
अभी-अभी मैंने बताया ही है कि कर्मों से घबराना कैसा ? यह तो देवताओं को भी नहीं छोड़ते फिर मनुष्यों की बिसात्र ही क्या है ? आज हम मर्यादापुरुषोत्तम राम, भगवान ऋषभदेव, सती चन्दनबाला धादि का नाम क्यों ले रहे हैं? इसलिये कि उन्होंने अपने कर्मों का कर्ज हँसते-हँमते चुकाया था। उनके कारण आर्तध्यान या रौद्र-ध्यान करके नये कर्मों का किंचित मात्रा भी बन्धन नहीं किया था।