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________________ .[९९] आनन्द प्रवचन : भाग १ प्राप्त कर भी सकता है, किन्तु काम, क्रांच, मद, लोभ और मोह में जो अंधे बने रहते हैं वे कभी भी कल्याण का मा ग्रहण कर मुक्ति प्राप्त करने में समर्थ नहीं हो सकते। क्योंकि वे कर्म से अन्धे होते हैं और इसीलिए. अशुभ कर्मों के बंध से बच नहीं सकते। मनुष्य कामनाओं के वशीभूत होकर जन्म-जन्मांतरों तक अनन्त-अनन्त पीड़ाएँ सहता है। कामनाओं का अथवा तृष्णाओं ला जाल ऐसा भयानक होता है जो कि प्राणि को दुखों में फंसाकर क्षत-विक्षत कर देता है तथा उस पर अशुभ-कर्मों का बोझ लादकर छोड़ता है। कामभोगों की स्थिति बौद्ध जातक में एक लघुकथा आनो है। मिथिला के महाराज नमि एक बार गवाक्ष में खड़े होकर नगर का दृश्याकनोकन कर रहे थे। उस समय उन्होंने देखा कि एक चील माँस के पिंड को मुँह में दबाए आकाश में मैंडरा रही थी और अनेक अन्य पक्षी उस माँसपिंड को लेने झपट रहे थे तथा चील को अपनी चोचों से घायल कर रहे थे। सहसा घायल चील के मुँह से माँस का टुकड़ा छूट गया और उसी समय दूसरे पक्षी ने उसे अपनी चोंच में दबा लिया। अब सब पक्षी उस पर टूट पड़े। दूसरे के भी घायल हो जाने पर तीसरे का नम्बर आया और उसकी भी वही स्थिति हुई। यह दृश्य देखकर नमिराज की अन्न:चेतना कह उठी - "संसारी काम भोगों की भी यही स्थिति है। जो भी उन्हें भोगने को आतुर होता है, वह पीड़ा एवं यंत्रणा से संत्रस्त होकर दीन-हीन बन जाता है। जो इन्हें पकड़े रहता है वह दुःख पाता है और जो उसे छोड़ देता है सुख का अनुभव करता है। सुख प्राप्त करने के लिए इन विषय-भोगों से बचते हुए सन्मार्ग पर चलना आवश्यक है। उन्मार्ग पर चलने से तकलीफ होगी, विघ्न-बाधाओं के कोटे लगेंगे, कभी धराशायी भी होना पड़ेगा। किन्तु सुमार्ग पर अर्थात् सीधे रास्ते पर चलने से कोई तकलीफ नहीं होगी, और होगी मैं तो मन की निर्मलता, साहस और उत्साह से वह सहज और सुखमय महसूस होगी। कोका भुगतान केवल मानवों के लिए नहीं । बंधुओ, आप यह मत समझ लेना के कर्म केवल मनुष्यों को ही सताते हैं। कर्म तो प्रत्येक जीव के पीछे लगे रहो हैं। जोकि सुख भी देते हैं और दुख भी। एक ही जाति के घोड़ो में से एक जो किसी राजा-रईस के यहाँ रहता है। आराम से अपने स्थान पर बैठा दाना-पाने खाता है, मालिश करवाता है तथा केवल हवाखोरी के लिए ही ले जाया जाता है। उसे क्या काम करना पड़ता है?
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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