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________________ • करमगति टारि नाहिं टरे [९८] चूमे। किन्तु इसके लिए सतत प्रयत्नशील सपना आवश्यक है। क्योंकि सिद्धि हासिल करना खेल नहीं है। कई वर्ष ही नहीं --- कई जन्मों के पश्चात् भी अगर वह प्राप्त हो जाय तो समझना चाहिए कि साँदा सस्ता पड़। गीता में कहा भी है अनेकजन्मप्रसिद्धिः -कई जन्मों में जाकर आत्मा को सिद्धि प्राप्त होती है। सिद्धि की प्राप्ति के लिए अनेक जन्मोंतक भी पल करना पड़ सकता है तथा घोर से घोर उपसर्ग सहन करने का अवसर आ सकता है। किसी उर्द भाषा के कवि ने कहा है - तलाशे-यार में जो ठोकरें खाया नहीं करते। वे अपनी मंजिले मकसूद को पाया नहीं करते। अर्थात ईश्वर की प्राप्ति के प्रयल में जो व्यक्ति कठिनाइ को सहन नहीं करते. नाना प्रकार की बाधाओं और विश्नों का मुकाबला नहीं ले भी मंजिल पर पहुँचने के उद्देश्य को प्राप्त नहीं कर सकते। इसलिए प्रत्येक मुमुक्ष को चाहिए कि वह शुभकर्मों के उपार्जनका पसल करे। शुभ-कर्म अत्यन्त कठिनाई से बँधते हैं जबकि अशुभ-कर्म अति शाप बँध जाते हैं। आपके मन में प्रश्न उठेगा कि यह कैसे? उसके उत्तर स्वयं ही देख लीजिए! अगर झगड़ा करना हो किसी से भी, तो दो शब्द .मेटे बोल दो फौरन झगड़ा हो जायगा। किन्तु उस झगड़े को मिटाने के लिए भी भारी परिश्रम करना पड़ेगा। शुभ कर्मों के लिए माड़ा जोर लगाना पड़ता है। संसार किस ओर है? इस समय सारा संसार अशुभ-वों की ओर प्रवृत्त हो रहा है। राग, द्वेष, विषय-वासना आदि की भावनाओं से अंधा बनकर उन्मार्ग पर चल रहा है। मनुष्य को अंधा बनाने में कई दोष काम करते हैं। एक संस्कृत कवि ने मुख्य रूप से छ: प्रकार के अंधों के विषय में बताया है कामान्ध - कोपान्ध - मदान्छाश्च, लोभान्ध - मोहान्ध - भवान्छकाश्च। भवंति लोके किल षड् विधा-आ, आन्त्यो हि भद्रं लभते न शेषा:। अर्थात् इस जगत में छ: प्रकार ने अंधे होते हैं। कामान्ध, क्रोधान्ध, मदान्ध, मोहान्ध, लोभान्ध और जन्मान्ध। शास्त्रकारों ने कहा है कि इन छहों में से अन्तिम, यानी जो जन्मांध होता है वह तो कभी सद्भाग्य से आत्म-कल्याण कर मोक्ष गति
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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