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________________ • [१७] गया देवलएसु, रए वि एगया । एगया आ काये, अहाकम्पेहिं गच्छई ॥ आनन्द प्रवचन भाग १ -उत्तराध्ययन सूत्र अपने कर्मों के अनुसार यह जीव कभी देवताक में कभी नरक में और कभी असुरकाय में उत्पन्न होता है। सारांश कहने का यही है कि कर्म-फल भोगे बिना छुटकारा किसी भी प्रकार से नहीं मिल सकता, हे व्यक्ति लाख कोशिश क्यों न करे। कर्मों के आगे तो बड़े-बड़े ज्योतिषी, ऋषि मुनि, आदि भी हार जाते हैं। तथा बड़े-बड़े, पोथी, पत्रे व पंचांग व्यर्थ साबित हो जाते हैं। एक पद्य में राही बताया है : करम से टारी नाहिं रे । गुरु श्रेष्ठ सम महामुनि ज्ञानी लिख लिख लगन धरे, दशम मरण, हरण सीता को कर वन राम फिरे। घोड़ा दस लाख पालकी, नख लख चैवर दुरे । रश्चन्द्र से दानी राजा, डोम घर नीर भरे ।। करमगति टारी नाँहि टरे । प का अर्थ आप समझ ही गये होंगे। रघुकुल शिरोमणि रामचन्द्रजी की पुण्यवानी क्या कमी दिखाई देती थी ? राज्यकुल में जन्म, अतुल वैभव में पालन, पोषण, क्षा-दीक्षा सभी उत्तम और फिर जनक जैसे विद्वान व ऐश्वर्यशाली राजा की से पाणिग्रहण । कहीं कोई भी अगाव नहीं था। राज्याभिषेक के लिए गुरु वशि ने उत्तमोत्तम मुहूर्त भी निकाल दिया। किन्तु हुआ क्या? राज्य प्राप्ति के पर वनवास जाना पड़ा, पिता दशस्त्र की मृत्यु हुई, सीता का हरण कर या गया और उसकी खोज में राम को भटकना पड़ा। यह सब कर्मों का ही जल था। कर्मगति की विचित्रता के कारण ही राजा हरिश्चंद्र जैसे सत्यवादी और महादानी पुरुष को राज्य का त्याग कर मारे-मारे फिरना पड़ा। इतना ही नहीं, पत्नी और पुत्र से भी विलग होकर चाण्डाल के घर पर सेवव्तवृत्ति करनी पड़ी। कर्म - विडम्बना यही कहलाती है। इसका शिकार व्यक्ति कोटि प्रयत्न करने पर भी इसके चंगुल से छुटकारा नहीं पा सकता ! इसीलिए ज्ञानी पुरुष, सन्त महात्मा एवं ऋषि-मुनि सभी एक स्वर से कहते हैं कि अशुभ कर्मों के उपार्जन से बचो। शुभ कर्म और सिद्धि मानव अगर अशुभ कर्मों से बचने का तथा शुभकर्मों की ओर बढ़ने का प्रयत्न करता रहे तो एक दिन वह अवश्य आ सकता है कि सिद्धि उसके चरण
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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