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________________ [१२] • बहुपुण्य केरा पुंज थी महान् आत्माएँ थीं। आज भी संसार में से महापुरुषों की कमी नहीं है जो भोग को छोड़कर त्याग को अपनाते हैं। बंधुओ, मेरे कहने का अभिप्राय यही है कि अनन्त जन्मों के पुण्यों के परिणाम स्वरूप हमें जो मानव-पर्याय मिली है, उसे अब व्यर्थ नही खोना है। अगर हम अपनी आत्मा के सहज-शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करना चाहते हैं, तो हमें त्याग-मार्ग पर चलना होगा। अगर हमें उस अव्याबाध और अनन्त सुख की कामना है तो वह भोगों में लिप्त रहकर पाप-कर्मों का बन्धन करते हुए नहीं मिल सकता। अगर सांसारिक भोगों को भोगते हुए ही आत्मा का कल्याण हो सकता होता, तो अनेक अवतारी महापुरुष और तीर्थंकर संसार में उदासीन होकर त्याग के पथ पर क्यों चलते? कहा भी है - होता यदि संसार सुखों का धाप्न त्याग क्यों करते, तीर्थकर चक्री क्यों जाकर वन में कहो विचरते? जाग जाग हे ज्योतिपुञ्ज! असर बीता जाता है, जो क्षण गया, गया सदैव को फिर न हाथ आता है। बीता हुआ समय पुन: लौटकर नहीं आता इसलिए कवि ने "चेतन को चेतावनी दी है कि 'अब तू जाग जा!' कची मिट्टी के घड़े में पानी अधिक समय तक नहीं ठहर सकता। तनिक से धक्के से ही घड़ा फूट जाता है। इसी प्रकार यह मानव शरीर है तथा आयुष्य इस तन-रूपी कचे घड़े में भरे हुए पानी के समान है, जो किसी भी क्षण समाप्त हो सकता है। अत: इसके लिए अभिमान करना तथा इसी की सार सम्भाल में अपना अमूल्य समय नष्ट करना वृथा है। न तो यह यहीं पर स्थायी रहता है, और न आत्मा के साथ ही चलता है। ऊपर से सुन्दर मालूम होते हुए भी सन्दर से केवल अशुचि का भंडार मात्र ही है। कवि सुन्दरदास जी ने शरीर की वास्तविकता का चित्र खींचते हुए, शरीर पर अत्यन्त ममत्व रखने वालों की भर्त्सना करते हुए कहा है जो शरीर माहि तू अनेक सुख मानी रह्यो, ताही तू विचार या में कौन सात भली है? मेद मजा मांस रग-रग में रगत भर्यो, पेट हूं पिटारी सी में ठौर ठौर मली है। हाड़न सू भर्यो मुख हाइन के नैन नाक, हाथ पांव सोउ सब हाइन त नली है। सुन्दर कहत याही देखी जन्माभूले कोई, भीतर भंडार भरी ऊपर तो टल्ली है। सारांश यही है कि सप्त धालों से निर्मित यह शरीर ऊपर चमड़े से मढ़ा हुआ है, और सुन्दर नजर आता है किन्तु अन्दर तो इसमें सिवाय अशुचि
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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