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________________ • [९१] आनन्द प्रवचन : भाग १ भगवान महावीर राजकुमार थे। उनके पास कौन-सा सुख नहीं था? समस्त भौतिक उपलब्धियाँ उन्हें प्राप्त थीं। किन्तु इस समस्त वैभव और सुख को नफरत की ठोकर मारकर निर्ग्रन्थ मुनि बन गए। बुद्ध भी भगवान महावीर के समान राजपुत्र थे। धन, धान्य, यौवन, राज्य और भी सुख के समस्त साधन उनके घरों ओर बिखरे हुए थे। किन्तु किसी भी सांसारिक वस्तु और सांसारिक संबंधों 5T मोह उन्हें बाँध नहीं सका। सबका त्याग करके वे भी मुक्ति की अभिलाषा लिये हुए कल्याण-मार्ग पर अग्रसर हो गए। ऐसा क्यों? इसलिए कि उन्होंने भली-भाँति जान लिया था --- सांसारिक पदार्थों से और भौतिक समृद्धि से कभी सजा सुख हासिल नहीं हो सकता। संग्रह और परिग्रह लोभ को बढ़ाते हैं। सारे संसार की समृद्धि भी यदि एकत्र करली जाय, तब भी लोभी को सन्तोष नहीं होता। हमारे शास्त्र कहते हैं - सुवण्ण रुवस्स उ पन्चया भवे, सिया हु केलाससमा असंखया। नरस्स लुद्धस्स ण तेहि किंचि, इनश हु आगाससमा अणतिया। --उत्तराध्ययन सूत्र यदि कैलाश पर्वत के समान सोने और चाँदी के असंख्य पर्वत भी हो जायें तो भी मनुष्य को सन्तोष नहीं होता। क्योंकि इच्छा तो आकाश की तरह अनन्त हैं। इसीलिए हम उन महान् आत्माओं ने पूजा करते हैं जो इच्छाओं से रहित बने, और जिन्होंने वीतराग होकर अपनी आमा का कल्याण किया। अपना सर्वस्व त्यागकर, और अन्त में प्राणिमात्र के कल्याण के लिए, हमारे देश के अनेक महापुरुषों ने अपने प्राणों का बलिदान कर दिया। हमारा दर्शन और हमारी संस्कृति यही कहती है कि, 'अगर तुम सच्चा सुख चाहते हो ही जो कुछ भी तुम्हारे पास है, सब अन्य को अर्पण करदो, आवश्यकता हो तो शरीर से अर्पण कर दो। ऐसे आदर्श उपस्थित करने वाली अनेक आत्माएँ हमारे देश की धरती पर उत्पन्न होती रही हैं। दधिचि ने देवताओं ने तथा सत्य और धर्म की रक्षा के लिये अपनी देह की हड्डियाँ ही वज बनाने के लिये दे डाली। राजा शिवि ने एक कबूतर की प्राणरक्षा के लिये अपने हाथ-पैर काटते हुए, समस्त शरीर को ही तुलापर चढ़ा दिया। महादानी कर्ण ने अपनी प्राणरक्षा के लिये अनिवार्य कवच और कुण्डल ब्राह्मण के रूप में आए हुए इन्द्र को दे दिए। गाँधीजी को गोली मार दी गई, ईसामसीह को सूली पर चढ़ाया या और सुकरात को विष-पान कराया गया। देश और धर्म के लिए बलिदान होने वालों के नामों की गिनती नहीं की जा सकती। शरीर को भी त्याग कर त्याग का आदर्श उपस्थित करने वाली वे
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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