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________________ बहुपुण्य केरा पुँज थी [२०] करें! तथा अपना एक लक्ष्य बनाकर उस ओर चलने का प्रयास करें। यह तो आप समझ ही गए होंगे कि इस दुःखमय संसार में पुण्य के बिना कोई भी सुयोग और कोई भी उत्तम साधन नहीं मिलता, गौसके द्वारा हम आत्म-कल्याण के मार्गपर चल सकें। कहा भी गया है - "पुण्यं विना याति दुरन्त दुःखं, संसारकान्तारमलभ्यपारम्।" जो घोर एवं विकट दुखों से परिपूर्ण है तथा जिसका पार पाना अत्यन्त कठिन है, ऐसे संसार रूप जंगल से बिना पुण्य के छुटकारा नहीं हो सकता है। इसलिये बंधुओ, पुण्य-कर्मों की ओर ध्यान देते हुए आपको साधना-पथ पर बढ़ना है। पुण्य-बल के कारण ही आपने जैनकुल, संत-समागम और शास्त्र-श्रवण का अवसर मिलता है। ऐसे उत्तम संयोग पाकर भी अगर यह मानव-जन्म सार्थक नहीं बनाया जा सके तो इससे अधिक पुण्य-हनाता और क्या होगी। प्रश्न उठता है कि जीवन का ध्येय क्या होना चाहिए? अगर हम संसार की वास्तविकता पर विचार करें तो यह उत्तर मिलता है कि जीवन का ध्येय इस जीवन से मुक्ति प्राप्त करना ही है।। जीवन क्षणभंगुर है। अभी है और क्षण भर बाद रहेगा या नहीं, यह कोई निश्चित्रा नहीं कह सकता। अत: प्रत्येक अवस्था में मनुष्य को स्मरण रखना चाहिये - उच्छ्वासों के मिस से प्रतिपल प्राण भागते जाते, बादल की-सी छाया काया पाकर क्यों इठलाते ? कौन सदा रख सका इन्हें फिर क्या मैं ही रख लँगा? पा, यम का संकेत तनिक सा मैं प्रस्थान करूँगा। संसार के बड़े-बड़े धनी-मानी, श्विर्यवान और कीर्तिमान पुरुष भी यम का दूत आने पर एक पल के लिए भी आना जीवन अधिक नहीं रख सके। रावण जैसे प्रतापी, भीम और अर्जुन जैसे शूरवीर, सहस्त्रार्जुन सरीखे धरती को अपने हाथों पर तौलने वाले योद्धा, सभी काल-ककोलत हो गए। तब फिर आज का मानद किस बात पर अहंकार कर सकता है? आत्मा के अतिरिक्त प्रत्येक वस्त नष्ट होने वाली है। अगर यह ज्ञान प्रत्येक मनुष्य कर लेता है तथा आत्मा के साथ क्या चलने वाला है, यह समझ लेता है तो उसका जीवन स्वयं ही त्याग और साधना की ओर बढ़ चलता है। हमारा भारतवर्ष भारत-क्षेत्र प्रासभ से ही ऋषिमुनियों का और महापुरुषों का देश रहा है। उनका जीवन संसार के लिये आज भी आदर्श बना हुआ है। क्या कारण है इसका? यही कि उनमें त्याग की भावना प्रधान थी। संसार के सभी सुख उपलब्ध होते हुए भी उन्होंम सबको ठोकर मारकर आत्म-कल्याण को अपना उद्देश्य मान लिया।
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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