________________
• [९३]
आनन्द प्रवचन भाग १
के कुछ भी नहीं है। इसलिए इसको पुष्ट करने और अहर्निश इसकी सार-सम्हाल करते हुए इसे जीवन का लक्ष्य मान लेगा महा अज्ञान का लक्षण है। शरीर को धर्म - साधना का सहायक मात्र मानना चाहिये। कहा भी है
-
'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्।'
धर्म की साधना करने के लिए शेर ही माध्यम है।
जिस प्रकार मक्खन से घी निकालने के लिये उसे किसी पात्र में डालकर ही आँच पर रखा जाता है, तथा छान को नष्ट करके शुद्ध घी बनाया जाता है। उसी प्रकार तप की अग्नि पर शरीर रूपी पात्र में मिथ्यात्व एवं कषाय आदि से अशुद्ध आत्मा को तपाया जाता है, ताकि वह विशुद्ध और निर्मल बन सके। शरीर के अभाव में यह संभव नहीं होता। एक बात और भी ध्यान में रखने की है कि आत्मा को निर्दोष एवं निष्कलुष बनाने के लिये एकमात्र मानव शरीर ही उपयुक्त है। अर्थात् इस मानव भव में ही आत्मा को मुक्त करने का प्रयत्न किया जा सकता है, अन्य किसी भी योनि में यह कार्य संभव नहीं होता। इसीलिये तो देवता भी मनुष्य जन्म पाने के लिये तरसते हैं। कहा भी है
जगत जलधि से पार उतरने का शरीर नौका है,
मानव भव शाश्वत सुख पाने का अनुपम मौका है।
बंधुओ, अगर हमें शाश्वत सुख पाने की कामना है, तो इस मानव-जन्म का सदुपयोग करना होगा। यह ध्यान रखना होगा कि अनन्त पुण्य के संग्रह से जो मनुष्य पर्याय मिली है, इसका एक क्षण भी व्यर्थ न चला जाए। आप संत दर्शन करते हैं, संत समागम करते हैं और उनके उपदेश भी सुनते हैं। किन्तु वे उपदेश आप सचाई से हृदयंगम भी करते हैं या नहीं? वे उपदेश आपको सत्पथ दिखाते हैं या नहीं ? इसका निर्णय आपको स्वां ही करना है।
चौधरी ने महाभारत सुना
किसी गांव में एक महात्मा ने महाभारत की कथा पढ़ी। कथा समाप्त होने पर जब वे गाँव से चलने लगे तो व के चौधरी से पूछा "क्यों भाई ! कथा में रस आया या नहीं ?"
चौधरी ने हाथ जोड़कर उत्तर किया अच्छी शिक्षा मिली। पर बहुत देर हो गई यह कथा सुना देते तो बड़ा अच्छा रहता।"
1
"बड़ा रस आया महाराज! बड़ी आप अगर कुछ दिन पहले आकर
महात्मा जी ने तनिक आश्चर्य में कहा क्या हुआ ? इसे तो जब भी सुना जाय तभी लाभ है।"
"कथा सुनने में देर हुई तो
"नहीं भगवन्, अब क्या लाभ है मुझे ? मैं तो कुछ महीने पहले जुए में