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________________ पानी रखकर वह अफ़ीम की टिकिया, पान के डण्ठल, चीनी आदि सामान निकाल कर वहीं जम गया । मशाल बुझते ही गोसाईं ने कहा, "यहाँ से घटना स्थल तक का रास्ता जंगलों से होकर जाता है । बाघ, भालू, हाथी, साँप - कुछ भी मिल सकते हैं । यहाँ से गारोगाँव का रास्ता दो घण्टे का है । उसी के पास नेपाली बस्ती है । इस अंचल में सरकारी गश्ती दल भी हैं । कल और आज दो दिनों से इधर मिलिटरी वालों की चहल-पहल भी बढ़ी हुई दिखाई दे रही है । वे मील आधा मील पर चौकियाँ बना रहे हैं । वस्तुतः उन्हें चौकियाँ न कहकर लुकने-छिपने के अड्डे कहना ठीक होगा । इसलिए गारो गाँव का रास्ता अभी आज रात ही तय करना होगा । कल वहाँ से कर्म-स्थली पर पहुँचने के बारे में भी आज ही निर्णय कर लेना होगा । इसीलिए उनमें से किसी एक को बुलाया था। इसके बावजूद ऐसी परिस्थिति में सोच-समझकर ही एक-एक पग बढ़ाना होगा ।" आँगन में चाँदनी फैल चुकी थी । उल्लू तब भी मुंडेर पर बैठा था । गोसाई को ऐसा प्रतीत हुआ मानो वह उन पर उनके द्वारा चलाये जानेवाले आन्दोलन पर और देश के भविष्य पर नज़र जमाये हुए है । वे मन-ही-मन हंस पड़े । परम्परागत संस्कारों से सम्पन्न होने के कारण वे सोचने लगे : लक्ष्मी का वाहन भी तो है उल्लू । लक्ष्मी और नियति- मंगल और अमंगल, सौभाग्य और दुर्भाग्य दोनों एक ही जीव में निहित हैं । और तभी उन्होंने उल्लू को अपनेपन की भावना से स्वीकार कर लिया । भिभिराम अपनी धुन में था । वह बोला : "दो-चार और बन्दूकों की आवश्यकता थी। फिर मधु को बुख़ार भी था । उसी हालत में वह गया है। पता नहीं, कहीं उसने कुछ उत्पात तो नहीं किया । आप क्या समझते हैं ?" "जब तक धनपुर है, तब तक तुम एकदम निश्चिन्त रह सकते हो । बस, संक्षेप में इतना ही जान लो ।” गोसाईं ने अनमने भाव से ही उत्तर दिया । उस समय उन्हें बन्दूकों की चिन्ता नहीं थी । वे चिन्ता कर रहे थे मनुष्य के अज्ञान की, और अज्ञान से मुक्ति पाने के लिए मानव द्वारा प्राप्त किये गये ज्ञान की । ज्ञान और अज्ञान — कितनी विचित्र हैं ये भावनाएँ ! एक कुरूप पक्षी तक मनुष्य की नियति और लक्ष्मी : दुर्भाग्य और सौभाग्य बन जाता है। मतलब यह है कि दुर्भाग्य और सौभाग्य के बीच लेशमात्र का ही अन्तर है । इस बात को प्रायः सभी समझते हैं । और उन बैलों की ओर क्यों नहीं देखते ? अभी कुछ समय पहले तक वे थे गोसाईं के घर के सौभाग्य यानी लक्ष्मी, किन्तु अब वे वनराज के आहार बन चुके हैं। बड़ी मछली छोटी मछली को निगल जाती है; प्रकृति के नियम की यही नियति है, यही दुर्भाग्य है । हिरणी का क्रन्दन भी वैसा ही है। कुछ दिन मृत्युंजय / 81
SR No.090552
Book TitleMrutyunjaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBirendrakumar Bhattacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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