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कर बोला, “प्रभु ! अब हमारे लिए यहाँ से चल देना ही अच्छा रहेगा।" ___"ए बहुरूपिये ! देखता नहीं, हे कृष्ण, घर की मुंडेर पर क्या है ! इसकी आँखों के सामने धनपुर की आँखें ना-कुछ हैं । हे कृष्ण, ठीक वैसी ही आँखें हैं। हे कृष्ण, सिर पर इस काल को लेकर कहाँ जाओगे ?"
भिभिराम पहले कुछ उदासीन-सा हो गया। लेकिन फिर सतर्क हो बोला, "पक्षी ही तो है। देखिये न, इसके आँख, चोंच, पंख, टाँग-सब कुछ हैं। आदमी होकर इससे डरना क्या ?"
भिभिराम के मुख की और देखकर आहिना अवाक रह गया। कैसा रौद्र रूप धारण कर लिया है इस दुबले-पतले बहुरूपिये ने ! वह ख़ामोश ही रहा, और चुपचाप अन्दर चला गया।
भिभिराम ने कहा, "लगता है कि आप भी मन-ही-मन लोहार की भट्टी की तरह स्वयं जल रहे हैं । मन को इतना चंचल नहीं होने देना चाहिए । मैं कल से ही गौर कर रहा हूँ, माया आपको पीछे की ओर खींच रही है । पत्नी, गाय-बैल, धान; और तो और आकाश का यह चांद भी-सब माया ही तो है । रूपनारायण के आने की बात थी, अब तक वह भी नहीं आया। इस संसार में आते समय कोई किसी को साथ लेकर नहीं आता। आये हैं अकेले और यहाँ से जायेंगे भी अकेले ही। यह आहिना भी अन्दर से एकदम खोखला है-खाली बक्से की तरह । इसने असलियत अभी जानी ही नहीं है। चलिए, चलें।"
गोसाई ने भिभिराम की ओर देखा और अपनी उसी गंभीर मुद्रा में बोले :
"यह सच है कि मैं अपनी प्रिय चीजों को नष्ट होते देखकर थोड़ा विचलित अवश्य हो गया है, किन्तु मैंने किसी काम में शिथिलता नहीं बरती है। काम ही असली बात है न ? कमारकुची आश्रम से अभी चलने का समय नहीं हुआ है। जो भी हो, रूपनारायण अवश्य आयेगा। उसके साथ किसी और के आने की भी बात थी। यहाँ थोड़ी देर और रुकना ही अच्छा होगा। इसलिए मशाल अभी बुझा दो भिभि !" ___"कहा नहीं जा सकता कि रूपनारायण के अभी तक यहाँ नहीं पहुंचने का क्या कारण है। पहले सूचित किये गये सहयोगियों में से भी किसी के आने की बात थी क्या ?" भिभिराम मशाल को जमीन पर पटक-पटककर बुझाने लगा। उसकी चिनगारियां चारों ओर बिखर गयीं। गोसाईं ने वहीं से आहिना को पुकारते हुए कहा : ___ "अभी मशाल मत जलाइये। और हाँ, पतीली में चाय के लिए थोड़ा-सा पानी रख दीजिये।"
आहिना को यह रुचिकर लगा। पिछले दो दिनों से वह अफ़ीम की टिकिया भी गर्म नहीं कर पाया था। उसके लिए मानो यह सुयोग मिल गया। अलाव पर
80 / मृत्युंजय