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________________ दराज से भी पंछी आते हैं। तब तो इसकी शोभा महा पुरुष शंकरदेव के 'वृन्दावनी वस्त्र' से भी निराली हो जाती है। -बरदोवा की तरह ही यह मायड भी शस्य-मत्स्य से परिपूर्ण स्थान है। अब पहले का-सा ज़माना नहीं रह गया है । पेड़-पौधों और प्राकृतिक वैभव में भी कमी आ गयी है । 'हाँ, नदी और सोते वही हैं। किसी सहोदरा की भाँति कलङ और कपिली ब्रह्मपुत्र से मिलकर एकाकार हो गयी हैं । इतिहास-प्रसिद्ध काजलीमुख भी पास ही है: 'हाधी, घोड़े और पदातिकों के आघातों से पानी रक्तमय हो जायेगा। जंगल भर ही बचा रहेगा । वहाँ झण्ड-के-झुण्ड हिरण आयेंगे । लम्बी दाड़ीवाले ठिगने माजूम खां को गुवाहाटी छोड़कर कूचबिहार भागना पड़ेगा।' -जाने को तो वह गया, पर काजलीमुख पर चोट करके गया। लौटती बार भी उसने यहीं डेरा डाला था । मायङ के राजा के अतिरिक्त दूसरे छोटे-मोटे रजवाड़ों ने भी एक जुट होकर यहाँ कभी भी मुसलमानी बादशाही नहीं जमने दी। शराई घाटी-युद्ध में भी ये अहोमों की ओर से लड़े थे, जिसमें अनेक क्षेत्रीय राजाओं से सहयोग प्राप्त हुआ था। तीन लाख प्रजा सहित पहाड़ी राजा भी आये थे । सबके चेहरे पर उत्साह, हृदय में शक्ति और चाल में मस्ती दीखती थी। तभी लचित बरफुकन ने कहा था---'मुग़ लिया फ़ौज क्या चीज़ है ? क्या हमारे राज्य में वैसे बहादुर नहीं ?' और असमीया सैनिकों ने इस शराई घाटी लड़ाई को गुरिल्ला तरीके से लड़कर जीत लिया था। यह अंचल सुरक्षित रहा आया था। यह इतिहास-सिद्ध घटना है। लेकिन अब इसे हम भूल गये हैं। - हाँ, हम सिर्फ़ भूल गये हैं, गोसाईं ने सोचा । उन्हें बचपन में ही 'बाँही' में अथवा कहीं और पढ़ी हुई कमलाकान्त की एक उक्ति याद हो आयी : 'वस्तुतः कायर का कोई धर्म नहीं होता। कायरता ही उसका एकमात्र धर्म होता है। जिसका तन और मन सबल है, उसके पास ही नैतिक बल अधिक रहता है। यह सच है। इस समय ये बातें याद आते ही मन अस्थिर हो जाता है। हम असमीया भीरु बन गये हैं। इसीलिए हमारा कहीं भी स्थान नहीं । हमारा जीवन संकीर्ण हो गया है। हमें इसे विस्तृत करना होगा। महान् त्याग के बल पर हमें अपने को प्रतिष्ठित करना पड़ेगा। खेत की मेंड पर तेजी से बढ़ते हुए गोसाई मोड़ पार कर राजामायङ के रास्ते पर आ पहुँचे । वहाँ से भी उसी तेजी से चौकीघाट की ओर चल पड़े। चौकीघाट से कमारकुची तक एक घण्टे का रास्ता है। गोसाईं ने एक बार आकाश की ओर देखा। अभी पो नहीं फटी थी। पर रास्ता साफ़ दीख रहा था। उनके मन से चिन्ता धीरे-धीरे विलीन होती गयी, चित्त सहज होता गया। __ चौकीघाट पर एक गश्ती चौकी थी, इसी रास्ते से पाँच फुट पर । किन्तु वह स्थान गोसाईं के परिचितों से भरा था। वे सभी इन्हें सदा उसी रास्ते कमारकुची मृत्युंजय /71
SR No.090552
Book TitleMrutyunjaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBirendrakumar Bhattacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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