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बानेश्वर राजा की आवाज़ भारी थी किन्तु थी तीखी। गोसाईं आगे बढ़े और बानेश्वर राजा के सामने जा खड़े हो गये। पूछा :
"क्या हुआ राजाजी, कहिये तो?" ।
अँधेरे में कोई किसी को अच्छी तरह देख नहीं पा रहा था। बानेश्वर ने कहा :
"लयराम और उसके नाविक को छोड़ देना चाहता हूँ। आप क्या कहते हैं ? निर्भीक और बाहुबली समझा जानेवाला आपका धनपुर गल-घण्टा है। तिल का ताड़ करता है। अब केवल अटकल पर ही तो ऐसा काम नहीं करना चाहिए । लयराम मेरा मित्र है । न जाने कितनी बार इसी झील में शिकार कर हमने एक साथ ही दावतें उड़ायी हैं, साथ-साथ कितनी रातें बितायी हैं। गांधीजी के मना करने और यह सब छोड़ने के पहले कई बार ताड़ी-दारू के दौर भी चले हैं। वह आदमी डरपोक और तितली की तरह चंचल है ज़रूर, पर उसने बन्दूक न देने की बात कभी नहीं बतायी। शइकीया को भी उसने कोई भेद नहीं दिया । अपने इस आन्दोलन को बिखरते देखकर डर तो लगा ही था उसे । फिर, वह रुपये का लालची और भुक्खड़ भी है। मिलिटरीवालों को मछली तिगुने दाम पर बेचकर पता नहीं कितना कुछ कमा चुका है इस बार। वैसे उसने सब कुछ क़बूल कर लिया है। नाविक तो उसका बायां हाथ ही है। वह.. उसे ख द सँभाल लेगा, ऐसा वह कहता भी है । इसके बावजूद उसकी वह रखैल भी आकर रो-पीट रही है । एक दिन और एक रात तो बन्द रखा ही जा चुका है। अब छोड़ देना ही अच्छा है । आपकी क्या राय है ?"
"दधि, तुम क्या सोचते हो ?" गोसाई ने पूछा।
"उस के बारे में ही तो अभी बात हो रही थी। मान लीजिये कि छोड़ भी दिया गया तो उसे संभालेगा कौन? कौन लेगा उसका जिम्मा? यदि उसने कहीं कोई मुसीबत पैदा कर दी, तब क्या होगा? राजाजी दायित्व उठायेंगे क्या?" दधि ने गोसाई की ओर देखते हुए पूछा, "शान्ति-सेना में से किसी का भी मन उसे छोड़ने का नहीं है । यह कोई साधारण बात नहीं । थोड़ा भी इधर-उधर होने पर मुसीबत खड़ी हो जायेगी।"
"मेरी भी यही राय है", गोसाई ने दृढ़ स्वर में अपनी सहमति दी। बानेश्वर राजा ने अपने को तनिक अपमानित-सा अनुभव किया । बोले : "अगर मैं उसका भार ले लूं तो छोड़ देंगे उसे ?"
"आपकी यह बात भी विचारणीय है।" गोसाईं मुसकराये। "जब लयराम पर एक बार अविश्वास हो गया है तब फिर से उस पर विश्वास लौटने में समय लगेगा। अभी वक्त भी नाजुक है। छोड़ दिये जाने पर वह शइकीया के साथ मिलकर सर्वनाश कर सकता है।"
मृत्युंजयः । 67