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चल । जरा उस्तादी दिखायी तो तेरे महाजन सहित तुझे भी काटकर नदी में बहा
दूंगा।"
__“आप लोग कौन हैं, साब।" माझी ने घिघियाते हुए पूछा।
"तेरी मौत, समझा !" धनपुर ने कहा, "चुपचाप नाव चला। किसी समय लचित बरफकन ने शराईघाटी में नाव चलवायी थी, आज शिलडुबी घाट पर मैं चलवा रहा हूँ। हम सबका एक ही संकल्प है : स्वदेश की रक्षा । मधु भइया, तुम नदी और नाव की चाल पर ध्यान रखना; साथ ही, बन्दूक के घोड़े पर से उँगली न हटने पाये। कोई जरा भी इधर-उधर करे तो बस सीधे गोली । इस समय धर्म-अधर्म कुछ नहीं ! ज्वर तक को भूल जाओ। सामने काम है : उसे पूरा करना है। काम करते हुए मरें, चाहे जीवित रहें । उसके लिए, ज़रूरी होने पर, मौत पर भी विजय पानी होगी।"
मधु ने उसी दम बन्दूक सँभाल ली, और माझी ने पतवार । लयराम के होश उड़ गये । थोड़ी देर बैठा रहा, उसके बाद छतरी के सहारे पड़ गया।
मधु बुदबुदाने लगा :
"पता नहीं, मेरे भीतर इस समय कौन आ बैठा है । सब जैसे उसी के कराये हो रहा है।"
धनपुर मुसकराया : "कोई भी हो, है वह आदमी ही । बिल्कुल सही आदमी।"
घर-खेती के सुख, रूपसी रखैल का संग-भोग : सबसे बलात् वंचित हुआ लपराम कुछ और ही सोच रहा था। उसे दिखने लगा था कि दो-दो यमदूतों द्वारा बन्दी होकर यमपुर ले जाया जा रहा है।
तभी मधु एक पद गुनगुना उठा । भाव था :
"आपत्ति सिर पर हो न हो, फिर भी यदि कोई धर्म को छोड़े, तब यमदूत भी उसे छोड़ते नहीं।"
धनपुर ने टिप्पणी की :
"इस समय युद्ध करना ही धर्म है : तब हम दोनों यमदूत तो हुए ही । लेकिन भइया, मैं तुम्हारे पद और श्लोक और घोषा आदि कुछ नहीं समझता। न ही मानता हूँ। क्योंकि धरती पर इतने धर्म इतने-इतने दिनों रहे : फिर भी कभी तो कुछ हुआ नहीं ! सच यह कि कुछ हो, इसके लिए मनुष्य को स्वयं हाथ-पैर चलाने होंगे। नाव भी अब नयी चाहिए, घाट भी नया ।"
मृत्युंजय ! 59