________________
ही बन्दुक मिल जायेगी। यहाँ बात कुछ और ही पायी। यह भी दिखा कि आपने एक भेदिया भी पाल रखा है। ऐसे में हमें क्या करना चाहिए, इसे हम भी समझते हैं और आप भी। हम मरने के लिए निकले हैं और आप हैं कि जीना चाहते हैं-अधम बनकर । उस ज़िन्दगी से मौत अच्छी। याद नहीं महात्माजी ने क्या कहा था : 'जो जीना चाहता है वह मरेगा और जो मरना चाहता है वह जीवित रहेगा।' उठिये अब देर मत कीजिये।"
धनपुर ने मधु की ओर बिल्कुल ही बदली हुई दृष्टि से देखा। मुंह से उसके निकला : - "मधु भाई, तुम्हारा यह रूप देखकर मेरी छाती और चौड़ी हो गयी। सारा भ्रम विला गया। अब जल्दी करो। सीधे नाव की ओर ।" लयराम की तरफ़ दाव सीधा करते हुए आगे बोला : “ज़रा भी इधर-उधर किया तो उसी क्षण सिर ब्योंत दूंगा। शइकीया के साथ दोस्ती गांठ रखी है। आजादी मिलते ही पहले तो उसे ही फांसी पर लटकाना होगा।" ___ लयराम आगे-आगे चल रहा था, दाव लिये धनपुर उसके पीछे, और भरी बन्दूक सँभाले सबसे अन्त में मधु । अपमान, भय और लांछना ने लयराम की जान जैसे सोख ली थी। यह समझ नहीं पा रहा था कि उससे कहाँ कौन-सी चूक हो गयी। शइकीया को एक भी गुप्त बात अब तक नहीं बतायी। यह ज़रूर कि इस माझी से कुछ इधर-उधर की ख़बरें उसे मिल जाती होंगी। पर इसे भी कितना क्या पता है । फिर कोई पराया आदमी यह है नहीं। किन्तु ये बातें भी कहने में वह डर रहा था। मधु को बताने की हिम्मत उसमें अब भी थी, लेकिन धनपुर की ओर देखते भी डरता था। वह मनुज नहीं, दनुज लगता था। उसे ऐसा प्रतीत हुआ मानो कहीं युद्ध चल रहा है और अज्ञानी सैनिक उसे युद्धबन्दी बनाकर लिये जा रहे हैं। -
मधु ज्वर की पीड़ा से हलके-हलके कराहता हुआ आगे बढ़ रहा था, लेकिन चाल में ढीलापन फिर भी न था। थोड़ी देर बाद तीनों नाव तक पहुँचे। उस समय माझी कपड़े पहनकर कहीं जाने की तैयारी में था । धनपुर ने बत्ती की रोशनी में देखा कि नाव की रस्सी वह खोलने को है । उसने लयराम को नाव में चढ़ने का संकेत दिया। पीछे-पीछे वे दोनों भी सवार हो गये ।
"माझी, तुम नाव के सामने वाले सिरे पर रहो।" धनपुर ने उसे आदेश दिया।
माझी थर-थर काँप रहा था। “मैंने कुछ नहीं किया है साब, बस धोती-भर बदली है।" धनपुर ज़ोर से घुड़का : "चुप कर । शइकीया का भेदिया बना है। सीधे-सीधे नाव को राजघाट ले
58 / मृत्युंजय