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________________ माझी ने सरल भाव से कहा : "अब ऐसा कौन काम आ पड़ा कि आधी रात को दौड़े ? शरीर का भी तो ध्यान रखना चाहिए ।" मधु धीरे से हँसा : "हाँ भाई, बात तो सच है । कहा भी तो है बड़भागों मिलती नर-तन जैसी दृढ़ नाव गुरु बनते कर्णधार अनुकूल वायु कृष्ण नहीं तिर पाते संसार आत्मघाती मन -' "1 "मैं अपने को आत्मघाती नहीं मानता। काम पूरा करने आया हूँ, पूरा करके रहूँगा । " दर्दभरे स्वर में धनपुर ने कहा । माझी ने उसके चेहरे की ओर देखा । थोड़ा सन्देह भी उसे हुआ । मगर समझ कुछ नहीं पाया । हाँ, सोचा ज़रूर कि ऐसी अन्धी अँधेरी रात में यों ही नहीं निकले होंगे । मधु ने सारी स्थिति को भाँयते हुए उस प्रसंग को ही टाला : "आओ चलें ! कष्ट में काम आनेवाले तुम्हारे जैसे भले जन तो साक्षात् दामोदर होते हैं । आओ धनपुर, ये मुझे दूसरी तरफ़ से थाम लेंगे तो हम तीनों जन बढ़ चलेंगे ।" कुछ देर चलने के बाद माझी से पूछा उसने : "उस औरत का क्या नाम बताया, भाई ?” "कांचनमती । उससे तो परिचित भी होंगे ! गोसाईंजी की रिश्ते की कोई बुआ है, उन्हीं की लड़की है। बचपन से ही चाल-चलन ठीक नहीं था । ब्राह्मणों के यहाँ ऋतुमती होने से पहले ही कन्या ब्याह देने का नियम रहा है। इसके लिए कोई ठीक वर मिला नहीं । अन्त में एक बूढ़े के साथ ब्याही गयी और कुछ ही दिनों बाद माँग का सिन्दूर पुंछ गया । फिर तो बचपन का स्वभाव रंग ले उठा । सुन्दर और आकर्षक थी ही, ऊपर से चंचल । सब कोई रीझ जाते । महाजन का जी भी लहरा गया । ब्याहता पत्नी गुवाहाटी तो रहती ही थी, असुन्दर भी थी । बस कांचनमती को रखैल के रूप में यहाँ रखा हुआ है। सारी दुनिया जानती है। आप लोग भी वहाँ पहुँचकर देख लेंगे। आखिर औरत तो लता की तरह होती है : उसे तो सहारा चाहिए ।" धनपुर हँसने लगा : "हाँ, ऐसा कुछ मर्द में होता है ज़रूर । चाहे तन में होता हो चाहे मन में। मगर मर्द भी औरत में कुछ ज़रूर पाता है । जो लतर में होता है, वही पेड़ 1 में भी। इसका अनुभव भी है ।" "यह तो व्यभिचार हुआ। सरासर व्यभिचार !" मधु के मुँह से निकला । मृत्युंजय / 51
SR No.090552
Book TitleMrutyunjaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBirendrakumar Bhattacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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