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" कसकर पकड़े रहो ! तुम्हारी गरम-गरम देह छूती है तो चैन-सा मिलता है ।"
"कौन है ?" एकाएक किसी ने कड़कती आवाज़ में पूछा ।
धनपुर और मधु दोनों चुप रहे ।
"बताते क्यों नहीं ? कहाँ के हो ? कहाँ जाना है ?"
मधु ने समझ लिया कि पूछनेवाला पास ही कहीं खड़ा है । शायद कोई माझी है । साहस के साथ उतर दिया :
"महाजन के पास जाना है हमें ।"
"तब माय के ही हो क्या ?"
"हाँ, तुम कौन हो ?"
" महाजन का ही आदमी हूँ। मछुआ हूँ । नाव में सोया हूँ । रात में इसे खेना है ।"
मधु के कान खड़े हुए। सहज रहते हुए पूछा :
" महाजन तो घर ही होंगे ?"
"हाँ, होंगे तो । पर भेंट होना मुश्किल है । अपनी मौज-मस्ती में होंगे। वह औरत भी है न यहीं ।"
"कौन औरत भाई ?"
इस बार वह माझी नाव से उतर आया। हाथ में बत्ती थी । हुक्क़ा गुड़गुड़ाते हुए ही छपरी से निकल आया था। बत्ती का उजाला पड़ते ही अचकचाया : "क्या हुआ ? इस तरह क्यों काँप रहे हो ? नाव में आ जाओ। ओढ़ना भी है यहाँ ।"
मधु सचमुच इतना काँप रहा था कि धनपुर थामे हुए न होता तो उतना चलना - बोलना भी दूभर था । बत्ती के धीमे उजाले में माझी ने ऊपर से नीचे तक धनपुर को भी एक बार देखा । मधु के माथे को छूते हुए बोला वह :
"चलते समय भी ज्वर था क्या ? अब क्या हो ? महाजन के यहाँ ही चलना शायद ठीक हो । हम दोनों थामे रहेंगे ।"
धनपुर बोला :
"मैं भी यही कह रहा हूँ । मुझे पता ही न था इन्हें ज्वर है ।" मधु के होंठों पर निर्जीव-सी मुसकराहट आयी :
"अरे इतनी सर्दी- गरमी तो देह की देह में पचती रहती है । द्वा तो मैंने कभी छू भी नहीं । आज जी सवेरे से ही शरीर थोड़ा भारी लग रहा था । फिर काम में लग गया । सब बात भूल गया । धार में उतर आने पर लगा कि देह टूटी जा रही है। सेंकने को आग मिल जाये तो सब ठीक हो जायेगा । चलो, महाजन के यहाँ ही चलें । काम ज़रूरी है ।"
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50 /- मृत्युंजय
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