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पानी में उतरते ही मधु का शरीर काँपने लगा। ज्वर शायद इस बीच बढ़ आया था। किन्तु इसकी चिन्ता उसने नहीं की । कपड़े उतारकर एक हाथ में संभाले और खड़ी तैराई तैरने लगा । धनपुर कहाँ से उतरा और किधर से बढ़ा, उसे पता न चला।
तैरने में आज उसे कुछ समय लग रहा था। एक बार को ऐसा तक अनुभव हुआ मानो जीते जी वैतरणी पार कर रहा हो । एकाएक मन में जैसे कौंधा कि उसका तो कोई वारिस भी नहीं है। पत्नी है, लेकिन बाँझ । कई जन इधर दूसरे ब्याह का प्रस्ताव लेकर आये; उसी ने हामी नहीं भरी। लयराम के रिश्ते की एक भतीजी की भी बात चली थी । मधु ने ही अस्वीकार कर दिया । पर उस सबका कोई पछतावा उसे नहीं है। कौन जाने आगे क्या होता। अवश्य, एक सन्तान हो जाती तो अच्छा रहता। लड़का पिण्डदान कर सकता, और लड़की होती तो रोपीट लेती । कुल की एक निशानी भी रह जाती। संसार में और कुछ अपना रह ही क्या जाता है । 'खेती का फल धान, संसारी का फल सन्तान ।'
अब तो बस प्राण न रहने पर यह बुढ़िया ही रो-धो लेगी। यह भी पीछे, कितने दिन और जियेगी : यही कुछ साल । उसके बाद तो मधु की याद भी किसे रहेगी! मगर मरने के बाद उसकी आत्मा स्वर्ग जायेगी या नरक ? देश के शत्रुओं का नाश करना क्या पाप है ? यह भी क्या अन्य जीवों की हत्या समान है ? अब जो भी हो उससे मुझे क्या। गोसाईजी को वचन देकर अब इधर-उधर करना उचित नहीं । वचन निभाना ही तो धर्म है।
मधु को पता नहीं चला कि वह कितनी देर तैरता रहा। समची छाती जैसे बर्फ़ हो गयी थी, और कमर तो बिल्कुल सुन्न । तभी एक तरफ़ से धनपुर की आवाज़ सुनाई पड़ी:
"इतनी देर कहाँ लग गयी? मैं तो डर गया था। हर ओर अंधेरा ही अँधेरा। पानी में दुबारा कूद भी जाता तो क्या कर लेता ! आओ, ऊपर आ जाओ।"
किसी तरह मधु ऊपर आया, लेकिन साँस ऐसी फूल रही थी कि धनपुर को उचककर उसे थामना पड़ा । वोला फिर :
"यह क्या ? तुम तो थर-थर काँप रहे हो । ठण्ड लग गयी क्या ?" मधु ने बताया :
"ज्वर था न ।” आगे बोला, "कन्धों को नहीं, कमर को कसकर थामो। यह तो जैसे रह ही नहीं गयी । जैसे-तैसे लयराम के घर तक पहुंच जाये, फिर देखा जायेगा। जरा सँभालो, धोती कुरता पहन लूं।" __ धनपुर ने मन ही मन कहा : सेंकने को थोड़ी आग होती तो अच्छा रहता। लेकिन अगर जलाऊँ भी तो उपमें जोखम है ! किसी तरह कपड़े पहने मधु ने । बोला:
मृत्युंजय | 49