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धनपुर की देह में एक झनझनाहट-सी लहक उठी थी। अभी तक कितने ही शब्दों का भाव तक उसे पता न था । परिचय ही ऐसा किसके साथ होने में आया था। ले-देकर केवल डिमि को कुछ जाना था और आज तक उसे नहीं भूल पाया। शायद वह भी उसे नहीं भूली। पर कोई किसी की ओर यों ही तो आकर्षित होता न होगा ! ज़रूर दोनों में किसी-न-किसी बात की कमी रहती है जिसे पूरी करने के लिए वे मिलते हैं। कितना अच्छा होता यदि वह भी डिमि के साथ रहता और डिमि के गर्भ में उसकी सन्तान पलती। जीवन में इसका अवसर भी उसे नहीं मिला । और इसका सारा कारण : समाज । जो भी हुआ, अब तो वह जी-जान से सुभद्रा को चाहता है और कैसी अजब बात कि सुभद्रा की आँखें, गाल और ठुड्डी ही डिमि की जैसी नहीं, हँसी और आवाज़ भी बिल्कुल मिलती है । पता नहीं इतनी समानता दोनों में कहाँ से आ गयी ! कौन जाने दोनों के मन भी एक समान हों, न हों।
लेकिन यह लयराम वाली विधवा ब्राह्मणी ? बिलकुल और होते हुए भी... किन्तु मनुष्य रूप और देह का लोभी होता ही है । देह का धर्म जैसा है वह । प्रत्यक्ष रूप में समाज भले न माने, पर व्यक्ति तो प्रत्येक मानता ही है । हो सकता है व्यभिचार होता हो यह । लेकिन सुभद्रा पर सैनिकों द्वारा ढाये गये अत्याचारजैसा तो यह हो नहीं सकता। उस बेचारी का तो कोई दोष ही नहीं था। वस्तुतः बलात्कार ही व्यभिचार है । वे सैनिक पशु बन गये थे।
धनपुर का रक्त खौल उठा। ऐसा ही हुआ करे तब तो न रहेगा समाज, न समाज की रीति-नीति, न कोई नैतिकता ही। ठीक है, ये सब बातें, उसकी बुद्धि से बाहर की हैं। सोचने और समझने की उसमें क्षमता ही कितनी है ! मगर जो आंखों के आगे है उसे तो देख ही सकता है। इसीलिए शायद मधु को बात उसे नहीं रुची। और उस विधवा ब्राह्मणी के लिए उसके हृदय में दया और सहानुभूति उपज आयी।
बोला धनपुर : "यह व्यभिचार-उभिचार क्या होता है मैं नहीं समझता। लेकिन हैं तो आखिर सब हाड़-मांस के पुतले ही।"
मधु उसकी बात का विरोध करते बोला : "ये सब राक्षसी तर्क हैं। राम-राज्य में इनके लिए स्थान नहीं।" धनपुर खिलखिला पड़ा :
"मधु भाई, आदमी ही कभी राक्षस बनता है और कभी देवता । कामदेव के बाण से गोपियाँ ही नहीं, श्रीकृष्ण भी तिलमिला उठे थे।" ...
मधु ने प्रकट रोष के साथ कहा :
"रासलीला का मर्म नहीं समझते तो पढ़ते क्यों हो? उसका गूढार्थ है : परमतत्त्व का आनन्द । ब्राह्मणी और लयराम की तुलना गोपी और श्रीकृष्ण से कर
52 / मृत्युंजय