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पास रखे पनबट्टे से लेकर पान चबाने लगे।
भिभिराम गम्भीर होता हुआ बोला :
"महापुरुषों की बातें उठाना ठीक तो नहीं। किन्तु महापुरुष शंकरदव घरबारी थे और चैतन्य प्रभु संन्यासी । हमारे महापुरुष एक सौ बीस-बीस वर्ष तक जीवित रहे, लेकिन वे मात्र अड़तालीस वर्ष। उनकी भक्ति थी मधुरा, जिसे हम लोग नहीं मानते।"
सुनकर ऊँचे आसन पर बैठे हुए गोसाई जी के होंठों पर हलकी-सी हँसी तिर आयी । बोले : ____ “पन्थ भले ही दो हैं, लक्ष्य एक है। वास्तव में भिभिराम, धर्म को लेकर तर्क करना वृथा है । मैं चैतन्यपन्थी हूँ, लेकिन महापुरुष शंकरदेव को मानता हूँ। धर्म के विषय में स्वयं महाप्रभु चैतन्य ने कहा है :
आपनि आचरि धर्म सबारे शिखाय।
आपनि ना कैले धर्म शिखान नायाय ॥" दो क्षण ठहरकर आगे कहा उन्होंने :
"धर्म सचमुच अपना-अपना व्यक्तिगत होता है। किन्तु हम पराधीन लोगों का भला क्या धर्म? जो लोग अपनी प्रकृति से धार्मिक होते हैं वे ईश्वर के अतिरिक्त किसी के सामने नहीं झुकते। महात्मा गांधी भी हैं वैष्णव ही ; पर वे गणशक्ति की उपासना करते हैं। भगवान का अवतार ही आज दरिद्रनारायण के रूप में हुआ है। जब तक देश स्वाधीन नहीं होगा, भगवान सन्तुष्ट नहीं होंगे।"
भिभिराम ने धनपुर की ओर देखते हुए कहा : "सुनते हो ! तुम तो कहते हो भगवान हैं ही नहीं।" सबकी दृष्टि धनपुर पर गयी। जयराम ने पूछा : "ये किस पन्थ के हैं ?" "हिन्दू ही हैं।" भिभिराम ने बताया। धनपुर ने स्पष्ट किया :
"जी मैं मनुष्य हूँ, भगत नहीं । भगवान को कहीं देख नहीं पाया। इतने-इतने अत्याचार होने पर भी नहीं दिखे । एक सरल-मन तरुणी पर सैनिकों द्वारा भीषण अत्याचार हुआ। भगवान सामने फिर भी नहीं आये। भगवान यदि हैं ही, तो अन्धे हैं या बहरे।"
सब अवाक रह गये । जयराम के मुंह से निकला : "नास्तिक कहीं का !"
आहिना कोंवर अफ़ीमची था । इधर थोड़ी-बहुत छोड़ दी थी; मगर आँखें अब भी हरदम मुंदी रहती थीं। अवस्था चालीस-बयालीस । वह भी पट् से आँखें खोलता हुआ बोला :
मृत्युंजय / 27