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"भाई, जिसे जो अच्छा लगे वही मानो। यहाँ आये हो काम के लिए, व्यर्थ का वाद-विवाद क्यों ? इस सबके लिए समय ही समय मिलेगा। अभी केवल अपने काम को देखो। काम ही मूल बात है । कर्म ही धर्म है।"
भिभिराम के स्वर में अनुशासन की गूंज थी । इसीलिए शायद दोनों चुप हो गये। इतने में थोड़ी दूर सामने से मधु ने पुकारा :
"इधर आ जाइए आप, प्रभु बुला रहे हैं।" धनपुर ने टिप्पणी की : "तो यह अब 'तुम' से 'आप' पर आ गया !' भिभिराम बोला : "इसलिए कि गोसाई जी ने हमारा परिचय दिया होगा।"
धनपुर ने बीड़ी फेंक दी और सँभलकर आगे बढ़ने लगा। पीछे-पीछे भिभिराम । सबके बाद माणिक बॅरा।
सामने ही ऊँची कुरसी का लगभग तीस हाथ लम्बा और पन्द्रह हाथ चौड़ा एक हॉलनुमा घर । बाँस का फटका : थोड़ा खुला, थोड़ा बन्द । पहले भिभिराम भीतर घुसा । उसके पीछे धनपुर और अन्त में माणिक बॅरा। अलाव लगा हुआ था। उसके पास पीढ़ों पर चार जन बैठे थे। एक का आसन सबसे ऊँचा था। इस आसन के पास ही तुलसी-स्तम्भ था।
इस आसन पर बैठे व्यक्ति की वय लगभग तीस होगी। लम्बी देह, मोटे खद्दर का कुरता-धोती, लालिम गौर वर्ण, सुन्दर मुख, नाक किंचित् नुकीली, आँखें उज्ज्वल और काली-जैसे बड़ी-बड़ी आभायुक्त मणियाँ हों, और केश पीछे की ओर को जड़े के रूप में समेटे हुए । यही थे दैपारा सत्र में गोसाई जी।
भिभिराम की ओर ध्यान से देखकर बोले :
"सामान नीचे रखकर आराम से बैठिए । रास्ते में किसी प्रकार की असुविधा तो नहीं हुई ?"
भिभिराम ने गठरी उतारकर खम्भे के पास संभालकर रख दी। उसी ओर शायद रसोईघर था : वरतन खनकने की आवाज़ आ रही थी।
पीढ़ा लेकर बैठते हुए उसने उत्तर दिया :
"जी मनहा के पार होने तक कुछ आशंका लगी रही, उसके बाद तो मायङ में आ गये : मानो अपने 'स्वाधीन' राज्य में हों।"
चारों जन हंस पड़े।
धनपुर के पास एक छोटा पोर्टफोलियो बैग था। उसे नीचे रखकर वह भी वहीं आ बैठा । सैण्डल उतारकर धीरे से पीछे को डाल दिये। फिर अपनी लम्बीचौड़ी बलिष्ठ देह के मुखभाग पर विराजमान नयनों द्वारा सबका समवेत निरीक्षण करते हुए बोला : "आपके मायड की कहानियाँ बचपन से सुनता आया हूँ। यह भी सुना है कि
मृत्युंजय /25