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"मैं सब कुछ सहन कर सकती हूँ, तो तुम क्या इतना भी सहन नहीं कर पाओगे ? मैं ठहरी स्त्री, पर तुम तो पुरुष हो ।"
रूपनारायण सहज हो गया । उसने आँसू पोंछ लिये । वह प्लेट में रखी मिठाई उठाकर खाने लगा । बीच-बीच में चाय की चुस्की भी लेता जाता था । अनुपमा अब भी गम्भीर थी। कहने लगी :
" विरह ही तो जीवन है मिलन नहीं ।"
रूपनारायण कुछ बोला नहीं। वह केवल अनुपमा की बात का मनन करता
रहा ।
थोड़ी देर बाद, शकीया के आने की आहट सुन अनुपमा पीछे वाले दरवाजे से निकल गयी ।
शकीया के चेहरे पर दुःख की गहरी रेखाएँ खिच आयी थीं। वह रतनी को भुइयानी के यहाँ पहुँचाकर लौटे थे । नवजात शिशु को ठण्ड लग गई थी। उसके लिए डॉक्टर को बुलावा भेजा गया था । भुइयानी स्वयं भी बच्चे को सेंक रही थी । बच्चे को एक झलक देखने की आशा में ही टिको भी उधर ही था । पुलिस अब भी गयी नहीं थी । उसे रूपनारायण के शहर में ही होने की भनक लग चुकी थी। शहर से आने-जाने वाले सभी रास्तों पर पुलिस तैनात हो चुकी थी। पुलिस यह भी शक था कि रूपनारायण कहीं वकील शइकीया के घर ही न छिपा
हो, इसलिए मुसीबत कुछ अधिक बढ़ गयी थी ।
शकीया उसके पास आ बैठे । कहने लगे :
"जाय जल्दी पी डालो। मैं तुम्हें छोड़ आऊँगा ।" कहते हुए उनका गला भर आया । "तुम्हारे प्रति मेरा बड़ा स्नेह है, पर सोची हुई बातें होती नहीं हैं, पगपग पर बाधाएँ आ जाती हैं। आरती को आशीर्वाद देकर तुमने अच्छा काम किया। अब वह खुशी-खुशी यहाँ से ससुराल जा सकेगी। हर कोई तो कठिनाइयों को सही रूप में नहीं समझ पाता । पर मुझे विश्वास है, तुम सब सँभाल लोगे ।"
रूपनारायण ने आरती की बात नहीं छेड़ी । केवल इतना ही पूछा : "आपने लोगों की जमानत लेने की कुछ व्यवस्था की है क्या ?"
शकीया वकील ने हँसते हुए कहा, “जितना कुछ सम्भव था, किया है। पर अब कानून के दिन लद गये हैं। सबकी जमानत तो होगी नहीं, जिसके अपराध भीषण नहीं होंगे, उन्हें ही ज़मानत मिलेगी ।"
इकीया ने रूपनारायण की ओर देखा और फिर सहज भाव से कहा : "अब इन सब बातों पर विचार मत करो। अब जब लड़ाई शुरू हो गयी है
तो सामान्य दिनों की तरह कानूनी व्यवस्था तो लागू होगी नहीं । तुम लोगों के मुकद्दमे के बारे में जेल से भुइयाँ ने भी लिखा है । टिको ने भी सब कुछ बताया
248 / मृत्युंजय