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बाद उसने धीरे से कहा :
"मैं आपकी बात याद रखूगी। आप जिसे माँ कह रहे हैं, वह मेरी..."
अपनी मां के कठोर चेहरे की ओर देख वह रुक गयी। बात भी पूरी न कर सकी। रूपनारायण ने कहा :
"नहीं आरती, तुम गलत समझ रही हो। वह तुम्हारी भी माता है, सौत नहीं। सौत है यह रूढ़ि ग्रस्त समाज, वहाँ मन में सोची गयी बातें भी कही नहीं
जातीं।"
___आरती कुछ कहना चाहती थी, पर कह नहीं सकी। वह फफक-फफककर रोने लगी।
"चल, देयन का समय हो रहा है। हल्दी चढ़ाने वहाँ औरतें तुझे खोज रही होंगी।" आरती की माँ के स्वर में रुखाई थी। ___ "जाओ आरती । मैं तुम्हारे पास आकर सब कुछ पा गया। मुझे और कुछ नहीं चाहिए। हाँ, यह हमेशा याद रहे कि तुम्हें सुखी देखकर मैं भी सुखी हो सऊंगा।"
इस बार माता की उपस्थिति की परवाह न कर आरती ने कहा :
"मैं आपको क्या कहूँ ? आप स्वयं ही अधिक समझते हैं। आपकी बात याद रखंगी । भूलूंगी नहीं।"
इस बार आरती की माँ आदेश के स्वर में बोली :
"चल आरती, अब भैया का आशीर्वाद ले तो लिया है।" उसके बाद उसका स्वर भी सहसा करुण हो गया। बोली, "हमसे भी चूक तो हो ही गयी, पर अब सोचने से क्या लाभ ? तुम्हारी आशा में हम लोग और कब तक बैठे रहते?"
आरती को संभालती हुई उसकी माँ जिस दरवाजे से आयी थी, उसी से बाहर निकल गयी । रूपनारायण को लगा मानो स्वर्ग का मोती एक बार पाकर भी उसने कहीं आँगन में ही उसे खो दिया। फिर भी वह संतुष्ट था इसलिए कि उसका खोना निरर्थक नहीं हुआ। __ एकाएक लगा मानो सब ओर अँधेरा फैल गया हो । लैम्प में भी जैसे रोशनी ही न हो।
कुछ क्षण बाद अनुपमा मिठाई और चाय के साथ कमरे में आ उपस्थित हुई । आते ही बोली : ___"शइकीयानी मानी ही नहीं। ज़बर्दस्ती चली आयी । मैं क्या करती? चाय ले लो। तुमने अपना कर्तव्य निभा दिया। शइकीया भी आ गये हैं। वे भी इधर ही आ रहे हैं।" ___अनुपमा चुप हो गयी। रूपनारायण को आँखों से लगातार आँसू बहते देख वह मुसकरायी और अधिकार जताने के स्वर में बोली:
मृत्युंजय | 247