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________________ वह क्या कहे, कुछ सोच नहीं पाया। वह आरती से अकेले मिलना चाहता था, पर वैसा सम्भव होता दिखाई नहीं पड़ा । आरती कुछ देर तक तो चुपचाप खड़ी रही। लेकिन फिर उससे रहा नहीं गया और फफककर रो पड़ी । रूपनारायण के लिए वह असहनीय हो उठा। वह रुलाई ही उसके अन्तर्मन की बात प्रकट कर रही थी - सदा-सर्वदा के लिए जुदा होने की बात । माँ ने टोका : " तू फिर रोने लगी ? चल प्रणाम कर ! " आरती ने झुककर रूपनारायण को प्रणाम किया । पाँव छूते समय उसने अपने हाथों से उसके जूते को स्पर्श किया। उसके साथ ही उसके रोने की आवाज़ तेज हो गयी । शायद फाँसी पर लटकाये जाते समय भी कोई इस प्रकार नहीं शेता । रुलाई बड़ी मर्मभेदिनी थी । रूपनारायण ने अपने पैरों को खींचते हुए कहा : "मेरे सामने तुम्हें घूँघट काढ़ने की क्या जरूरत ? चलो, यहाँ बैठ जाओ ।" आरती की माँ ने कोई रोक-टोक नहीं की । उसने ही आरती का घूंघट भी उठा दिया: कच्ची हल्दी -सी निष्प्रभ, फिर भी चेहरे पर सुकुमार शोभा की झलक थी। उसमें कोई चपलता नहीं थी। आंखों की पलकें कुछ सूज गयी थीं । शायद वह उसके पहले रोते रहने का परिणाम था । बड़ी मुश्किल से आरती ने एक बार आखें उठाकर रूपनारायण की ओर देखते हुए पूछा : "आप लोगों का आन्दोलन ठीक से चल रहा है न ?" "हाँ ।" मानो आन्दोलन रूपनारायण का कोई अपना व्यवसाय हो । " आप सकुशल हैं न ?” "यह तो देख ही रही हो ।” पूछना चाहिए था उसे मन की अवस्था के बारे में, पर वह ख़बर जानना चाह रही थी शारीरिक अवस्था की। सीधे खुले तौर पर लड़कियों के लिए कुछ पूछना भी तो कठिन होता है । तभी तो वे जो पूछती भी हैं वह मात्र एक-दो वाक्यों में ही और वह भी अस्पष्ट । लेकिन रूपनारायण ने वैसा नहीं किया । उसने साफ़-साफ़ कहा : "आरती ! तुम्हें तो शायद पता ही है कि मैं तुम्हें कितना मानता रहा हूँ । इसके बावजूद हमारे विवाह में बाधा उपस्थित हो गयी । कोई बात नहीं । अब तुम्हारा विवाह अन्यत्र हो रहा है। यह अच्छा ही है । तुम अब भी यदि मुझसे प्यार करती हो, तो अब वह ठीक नहीं है । तुम्हें अब वैसा नहीं करना चाहिए। हाँ, मैं जिसे प्यार करता हूँ, जिसके लिए मैंने सर्वस्व होम दिया है, तुम भी उसे ही प्यार करना । वह है हमारी महीयसी माँ, यानी भारतमाता ।" भारती कुछ बोली नहीं । स्तब्ध हो मात्र उसकी ओर देखती रही। उसके 246 / मृत्युंजय
SR No.090552
Book TitleMrutyunjaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBirendrakumar Bhattacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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