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अनुपमा ने पास ही पड़ी एक कुर्सी पर रूपनारायण को बैठने का संकेत किया और फिर मेज पर रखे लैम्प की बत्ती को थोड़ा तेज़ कर कमरे से बाहर निकल गयी।
रूपनारायण ने कमरे में चारों तरफ़ नजर दौड़ायी। एक मेज़ पर कुछ किताबें पड़ी थीं । कमरे में पर्दा नहीं था। पास में ही एक छोटा-सा बिछावन भी था। उस पर एक जोड़ी रिहा-मेखला पड़ी थी। उसके पास ही एक आइना भी था। किसी ने दाढ़ी बनाने की सामग्री भी वहाँ रख छोड़ी थी। एक छोटी-सी मेज़ पर ज.वाकुसुम की शीशी, एक कंघी और बिछावन पर ही प्रीति-उपहार की कई वस्तुएँ भी पड़ी थीं। दीदी-बहनोई के विवाह पर किसी ने एक कविता भी लिखकर भेंट की थी। उन सारी चीज़ों को देखते-देखते रूपनारायण का हृदय वैसे ही छटपटाने लगा जैसे कोई कबूतर तड़फड़ाता है। वह आँख मूंदकर सारे परिवेश को भूलने का प्रयास करने लगा।
पहले वह यदा-कदा आकर इसी कमरे में सोया करता था।
"नहीं, वह सब सोचना अब आवश्यक नहीं है। यही काफ़ी है । आन्दोलन के पहले जब कभी आता तो यहीं सोया करता था। आरती चुपके से कभी-कभी आधी रात को आकर दरवाज़ा ढकेल देती थी और दरवाजा खोलने पर मैं अवाक् रह जाता था। मानो कोई पण्डकी पेड़ की डालियों से उतर आयी हो। हम दोनों हकलाते हुए बातें करते थे-एकदम असंलग्न बातें । उनका कोई ओरछोर नहीं होता था। उसके आकर्षक यौवन की सुषमा को मैं मंत्रमुग्ध निहारता रहता । तब मेरी सारी देह में अनजाने ही एक बिजली कौंध जाती थी। उसी समय आरती की माँ का रूखा स्वर सुनाई पड़ता और वह तुरत यहाँ से भाग खड़ी होती थी । लजाकर मैं भी किवाड़ बन्द कर सो जाता था। और तब घण्टों तक नींद नहीं आती थी।
-'वे सारी बातें सोचने पर आज भी मुझे लज्जा की अनुभूति होती है। लेकिन उस आवेग की आँधी में भी जो आनन्द मिलता था, उसे मैं अस्वीकार नहीं कर सकता । यह मानना सत्य नहीं होगा कि उसमें दैहिक आकर्षण भर ही था। नहीं, कहीं-न-कहीं उसमें कुछ और ही प्रकार का आकर्षण भी अवश्य था। उसे मैं आज भी भूल नहीं पा रहा हूं। अवश्य, कहीं-न-कहीं मुझमें अपराध की भावना भी है।
'तब से मैंने आरती के नाम एक पत्र भी तो नहीं लिखा।'
तभी रेशमी मेखले की सरसराहट की आवाज़ पा उसने अपनी आँखें खोली। उसने देखा कि आरती के साथ उसकी माँ भी कमरे में आयी हुई थी।
आरती की मां ने कहा, "इतने दिनों बाद तुम्हें हमारी याद आयी ? चलो, आये तो सही। भैया के पैर छुओ बेटी ! और बेटे रूप तुम इसको आसीस दो।"
मृत्युंजय | 245