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भिभिराम मुसकराया :
"अरे स्वयं मृत्युदतों को कहाँ मृत्युभव ! अच्छा इन गोसाई जी को जानते हो तुम ?"
"अच्छी तरह । कांग्रेस के सभापति हैं। आप लोग भी कांग्रेसी हैं क्या ?"
खंचिया की एक मछली फिर फड़फड़ायी। मधु केवट कीचड़ से लथपथ खड़ा था। देह में जगह-जगह खुजलाहट भी मची थी। दोनों पैर जोंकों के लग जाने के कारण रक्त से लाल हो रहे थे।
माणिक बॅरा ने सुझाया :
"ठहरो, मैं अभी एक बूटी ला देता हूँ, दोनों पैरों पर रस लगा लेना।" और वह इधर-उधर निगाह डालकर चट से गदहपूरन की पत्तियाँ तोड़ लाया । चुटकी से हथेली पर उसने मसली और मधु के पैरों में लगाने को हुआ ही कि पैर खींचते हुए बोला वह :
"किस बिरादरी के हो भाई ? भगतों को तो पैर छने नहीं दिया जाता !" माणिक बॅरा सकपका गया : "मैं कोच हूँ। और तुम ?" "केवट ।"
माणिक ने उस बूटी का रस मधु की हथेली पर ढाल दिया। मधु ने पैरों पर कई जगह मला । मलते-मलते बोला :
"यह सामने जंगल है न ? इसके पार होते ही दैपारा सत्र आ जाता है। अपूर्व स्थान है ! किसी जुग में ऋषि-मुनि लोग ऐसे ही स्थानों में आश्रम बनाया करते थे । गोसाईं जी भी बड़े ज्ञानी पुरुष हैं । पर आप आये किस काम से हैं ?"
उत्तर में उलटे प्रश्न किया धनपुर ने : "भई, तुम कांग्रेस में हो या नहीं ?" "क्यों न हूँगा? कौन नहीं है कांग्रेस में !"
धनपुर मुसकराया ! दो मिनट जैसे चारों चुप रहे। मधु ने ही उसके बाद पूछा :
"कोई काग़ज़-पत्तर लाये हो क्या ? याने किसी की चिट्ठी?" "हाँ !" "किसकी है?" "कामपुर के गोसाईं जी की।"
"तब फिर आइए चलिए !" अगे जोड़ा मधु ने, 'मैं अब समझ गया । हमारे प्रभु ने गोसाईं महाराज को लिखा होगा ! चलिए !"
भिभिराम मुसकरा दिया : "हाँ भाई, लिखा तो था ।"
मृत्युंजय | 21