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हठात् माणिक बॅरा गुनगुनाने लगा । भाव था :
हमें मृत्यु का भय नहीं है । देह विनश्वर है : एक दिन इसका नाश होगा ही। खेद और पीड़ा इस बात की है कि शरीर न रहने पर तेरे श्रीचरणों के दर्शन क्योंकर होंगे।
मधु ने पूछा : "किसका पद है भइया ? बड़ा मार्मिक है।"
"हाँ, शंकरदेव महाराज का है। चारों ओर आग लगी देखकर गोप-गोपी मधुसूदन को गुहारने लगे थे। उसी समय का है ।"
"आपका कण्ठ भी बड़ा मधुर है !" बीच में ही धनपुर ने टिप्पणी की : "अरे, किसी युग में इन पदों को सुनकर श्रद्धा जगती थी, अब तो जी भभक
उठता है।"
सुनकर तीनों चकित रह गये । मधु ने माणिक बॅरा से पूछा : "ये कौन हैं भाई ?" किसी ने उत्तर नहीं दिया। धनपुर ही आगे कहता गया :
"भगवान होता तो अब तक आविर्भाव हो जाता। इतना-इतना अत्याचार क्या देख पाता वह ? नहीं; गोपियों का कृष्ण-कन्हैया अब कहीं नहीं है।"
धरती पर अंधेरा उतर चला था। माणिक बॅरा ने विरक्त होते हुए कहा : "तेरे आँखें ही नहीं है धनपुर ! अन्धा है तू !" "माणिक भाई, अंधेरे में सभी अन्धे हुए रहते हैं।" तभी सान्ध्य आरती के शंख और मृदंग बज उठे।
22 / मृत्युंजय