________________
"तू ही जा, मुझे कोई पहचान लेगा। इस वेश में तुझे पहचानने की किसी में ताकत नहीं है।"
रूपनारायण को उसकी बात ठीक लगी। वह राजी हो गया। और मैदान की ओर चला गया।
"टिको भी सीधे भइयाँ के घर की ओर बढ़ गया। वहाँ जाकर रूपनारायण ने देखा कि वे सब उसके ही आदमी थे। कुछ देर वहीं रुक उसने सबकी हालत जानने और घटना का सही सुराग पाने की कोशिश की। दो मिनट में ही पता चल गया कि कई गांवों से पुलिस उन सबको पकड़कर लायी है और जेल भिजवाने की तैयारी कर रही है । शायद जेल के अन्दर जगह नहीं होने से ही सबको खुले में बाहर रखा गया है।
उसने देखा कि एक औरत के पास जाकर पुलिस कुछ पूछताछ कर रही है। और सब प्राय: चुप थे। पुलिस उस औरत को साथ ले धीरे-धीरे जेल के फाटक की ओर बढ़ा दिया। तभी बिजली की रोशनी में वह औरत साफ़-साफ़ दिखाई पड़ी। वह डिमि थी। रूपनारायण ने डिमि को उसी क्षण पहचान लिया । थोड़ी देर बाद जेल का छोटा दरवाजा खुला और डिमि को उसी से भीतर ठेल दिया गया। वह अदृश्य हो गयी।
उन आदमियों के सामने से ही रूपनारायण धीर-गम्भीर गति से आगे बढ़ गया। धीरे-धीरे वह कचहरी के निकट पहुंचा और वहाँ थोड़ी देर रुककर मुख्य सड़क से ही वह सिर झुकाये सीधे भुइयाँ के घर की ओर चल पड़ा। उसे यह खबर पहले ही मिल गयी थी कि लोगों की शिनाख्ती के लिए डिमि को गिरफ्तार किया गया है।
उसे अन्दाज़ हो गया कि उस दिन शायद शिनाख्ती का काम पूरा नहीं हुआ था। नहीं तो डिमि को आज यहाँ लाया ही नहीं जाता। और लोगों को रूपनारायण ठीक से पहचान नहीं सका। ___ रूपनारायण को लगा जैसे वह रूपनारायण नहीं, एक चलती हुई छाया है । आकाश में चाँद था, पर उसके मन में कहीं एक और चाँद खिल उठा था। दूरी अब अधिक नहीं रह गयी थी। उस घर के वह जितना निकट पहुँचता जा रहा था, उसकी छाया भी मानो उतनी ही अधिक साफ़ होती जा रही थी । आज उसे लेशमात्र भी उसके लिए खेद या क्षोभ नहीं था। रचकी भाभी से मिले समाचार ने ही उसे मानो मोह-मुक्त कर दिया था ।.. आरती रोयी भी थी। उसके लिए ही तो रोयी थी। उसने मानो टटोलते-टटोलते ही स्यमन्तक मणि पा लिया था। इस समय उसका हृदय वैसी ही सान्त्वना खोज रहा था जैसीकि धनपुर डिमि से चाहता था। यह मात्र रोमांच नहीं था, बल्कि उसके हृदय में बचपन से ही स्नेहपूरित कमल खिला हुआ था । आरती ! उसे आरती को आसीस देने की इच्छा
232 / मृत्युंजय