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हुई। वैसा ही आसीस जैसे उदार दृष्टिवाले अपने से छोटों को दिया करते हैं । पर आज उसके पास इसके लिए भी अधिकार नहीं था। हाँ, यह उसका अनुमान ही था । वह अपने को क्रान्ति की महान् साधना में जितना अधिक विलीन करता जा रहा था, उतना ही उस यात्रा की पूर्णता का अंकुर बनता जा रहा था। एक बाग़ में लगे किसी पौधे को उखाड़कर एकाएक किसी दूसरे बाग में लगा दिये जाने पर जैसे वह और ही रूप में बढ़ता है, वैसे ही वह भी बढ़ गया था।
नहीं, नहीं, यह सोचना भूल होगी। उसके मन की अवस्था ठीक वैसी नहीं है । आरती से वह विवाह करना चाहता था, लेकिन इस समय नहीं। अपना स्वप्न पूरा हो जाने पर । वैसे ही जैसे धनपुर सुभद्रा से विवाह करना चाहता था। लेकिन वैसी कल्पना के लिए उसे गुंजाइश नहीं थी। कारण, धनपुर तो सुभद्रा का हो भी चुका था। पर रूपनारायण को तो यही लगता रहा कि पता नहीं आरती उससे प्यार करती भी है या नहीं। उसके अन्तर में भी तो आरती के लिए पूरा-पूरा प्रेम नहीं जागा था, लेकिन आज उसे इस बात का पछतावा था। आरती के सामने सारी स्थिति सही-सही रखकर वह क्यों न उसे भी स्वराज्यप्राप्ति के इस व्यापक आन्दोलन में खींच लाया ?
थोड़ी ही देर में वह भुइयाँ के मकान पर पहुँच गया। दरवाजा खटखटाया। लेकिन देर तक जब दरवाजा नहीं खुला तो वह चिन्तित हो उठा। उसने एक बार जोर से आवाज़ लगायी :
"बापू ! बापू !!...सो गये हो क्या ? दरवाजा तो खोलो!" तब भी भीतर से कोई आवाज़ नहीं आयी।
"टिको आखिर कहाँ चला गया होगा? कहीं गिरफ्तार तो नहीं कर लिया गया ?" वह सोच ही रहा था कि तभी एकाएक दरवाजा खुला । एक बुढ़िया हाथ में लैम्प लिए खड़ी थी । वह खादी के कपड़े पहने थी। उसने देखते ही पूछा :
"क्या चाहिए ? इतनी रात गये दरवाज़ा क्यों पीट रहे हो?"
"मुझे पहचाना नहीं क्या ? मैं हूँ रूपनारायण ।" रूपनारायण ने मुसकराते हुए कहा।
___ "भीतर आ जाओ बेटे !” बुढ़िया ने लैम्प थोड़ा तेज कर लिया। "तुम्हें खोजने दरोग़ाजी चार दिन से फिर रहे हैं। बापू को भी पकड़ ले गये है। टिकी आया था। मैंने उसे मायङ की गोसाइन के पास जाने को कहा था। उधर ही रहना निरापद है। तुम भी उधर ही चले जाओ।"
भीतर होकर रूपनारायण ने दरवाज़ा बन्द कर लिया। फिर कहा : "एक कटोरी पानी पिलाइये, माँजी। प्यास के मारे गला सूखा जा रहा है।"
रूपनारायण ने कुदाल को एक कोने में रख अपने कन्धे पर की गठरी उतार ली। वुढ़िया ने बड़े आग्रह से कहा :
मृत्युंजय 233
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