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भरनी के लिए भी सूत चाहिए तभी तो काम आगे बढ़े !
बिछावन के नाम पर एक चटाई थी। फटे-पुराने कपड़ों को ही सी-साकर उसने एक तकिया बना लिया था। इसके सिवाय और उपाय भी तो नहीं । उस तकिये के ऊपर ही एक फटा-पुराना कम्बल डाल रखा था। वह कह नहीं सकती कि उस पर उसका पति आकर सो भी सकेगा या नहीं । और उस साथवाले आदमी को सोने के लिए कहाँ जगह देगी ? पति से अकेले में मिलकर वह कुछ देर तक उससे बातें करना चाहती थी। उसने बड़े कमरे में भी तो चार चटाइयाँ रख छोड़ी थीं। अगर ज़रूरत हुई तो वहीं उसे सोने के लिए बिछा देगी ।
काफ़ी समय बीत गया तब भी कोई नहीं आया । उसे भूख लग आयी थी । भूख लग आयी तो क्या हुआ, घरवाले के आने तक तो उसे रुकना ही चाहिए। एक बार वह रास्ते की ओर देख भी आयी । दरवाज़े के सामने ही शहर तक जाने वाली सड़क है । सड़क पर कोई नहीं दिखा। थोड़ी दूरी पर कीर्तन-धर का मणिकूट चमक रहा था मानो वह उसके मन का ही मुकुट हो । वह उस ओर थोड़ी दूर तक गयी भी, पर एक मिलिटरीवाले को देखते ही ठिठक गयी । यह तो रोजमर्रे की घटना हो गयी है ।
कीर्तन -घर के पास की बँसवाड़ी में बाँस काटे जा रहे थे । उन्हें मिलिटरी वाले ले जायेंगे। इन लोगों की लालसा का कोई अन्त है ? वह लोट आना चाहती थी । कीर्तन-घर में भजन-कीर्तन चल रहा था। उसके पूरा होने का समय भी हो रहा था। तभी उधर से भैंस की पीठ पर सवारी किये कोई एक गुज़रा। उसी के थोड़ी ही देर बाद बरठाकुर आते दिखाई पड़े । वे कहीं से श्राद्ध खाकर लौट रहे थे। उनके अँगोछे में एक गठरी भी बंधी हुई थी । रतनी को देखते ही बोले : "इधर क्या कर रही हो ? घर जाओ। टिको आने ही वाला है ।" "आयेगा क्या ?" उसका मन उल्लसित हो उठा ।
"हाँ आयेगा ।"
बरठाकुर के साथ वह भी घर की ओर बढ़ चली । चलते-चलते बरठाकुर ने कहा, "लगता है आज रात ये बाज़ की तरह झपट्टा मारनेवाले हैं। भर-भर गाड़ी मिलिटरी आ रही है । सारे गाँव को घेर रही है। शायद दारोगा शइकीया को इन सबके आने की भनक मिल रही है ।"
इस बार रतनी का मुँह फक हो गया । उसने पूछा :
" किसके आने की भनक लग गयी ?"
" रूपनारायण की ।"
रतनी का घर पहले पड़ता था। बरठाकुर ने उसके दरवाज़े पर रुकते हुए
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कहा :
"कुछ होने पर पिछवाड़े से मुझे ख़बर कर देना । समझी न ! लेकिन अपनी
मृत्युंजय / 225
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