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माँ और भाभी रह गयी हैं पर उनका हाल भी बेहाल ही है । तब भी पुरुष जन देश का काम कर रहे हैं। इससे बड़ा और भला क्या पुण्य होगा ?
मुँह में एक पान ले रतनी ने पनबट्टे को उठाते हुए कहा :
" दीदी, शइकीया ने ठीक काम नहीं किया है । लड़की है तो क्या हुआ ? लड़कियों का अपना मन नहीं होता क्या ? रईस आदमी का मन फूटे घड़े जैसा होता है। अच्छी बात उसके भी मन में आती ज़रूर है, पर टिकती नहीं, बस यों ही निकल जाती है ।"
रचकी ने टोकरी को सिर पर उठा रतनी की ओर एक बार ग़ौर से देखा और कहा :
"तेरा समय पूरा हो रहा है क्या ?"
"हाँ । पता नहीं यह हफ़्ता भी निकल पाता है कि नहीं" कहते-कहते शर्म के मारे वह लाल हो गयी। उसकी निढाल देह किसी सुखद संभावना से रोमांचित हो उठी । रचकी ने मुसकराते हुए टिप्पणी की :
"मर्दों को लड़ाई में और औरतों को पैर भारी होने के समय ज़रा सँभलकर ही रहना पड़ता है । भारी चीजें मत उठाना । भुतही जगहों पर अकेली न जाना । मैं तो आती-जाती खबर लेती ही रहूँगी ।"
"हाँ, आती रहना दीदी ।"
. रचकी चली गयी । रतनी कुछ क्षण वैसे ही खड़ी रही। लगा जैसे पेट में बच्चा हिल- डोल रहा है। बेटा होना चाहिए। यदि बेटा हुआ तो टिकौ की तरह ही उसकी आँखें कजरारी, ललाट चौड़ा, नाक नुकीली और कन्धे मज़बूत होंगे । कहीं इस युद्ध में उसे कुछ हो गया तो वह बेटे को देख-देखकर अपने प्राणों को जुड़ा तो सकेगी।
जैसे ही उसका ध्यान टूटा, वह
गयी । जुट
वह अब तक उसी लोक में खोई हुई थी। रसोईघर में चली गयी और मछली धोने-बनाने में उसने आज तीन आदमी के हिसाब से चावल चढ़ाया। माटकादुरी साग और नरसिंह के पत्ते का झोल भी तैयार किया । पाम मछली भी तली और उसमें खट्टा मिलाकर उसका भी थोड़ा-सा झोल तैयार किया। बाग़ीचे से नीबू भी ले आयी और उसके चार टुकड़े कर रखे । टिको पाम मछली के साथ खट्टे का झोल बहुत पसन्द करता है । ढेकिया साग और मटर की दाल की भी जुगाड़ बैठा ली। हाँ, चावल ज़रूर अच्छा नहीं था । मोटे धान का था । धान का मटका भी तो ख़ाली पड़ा था, वह करे भी तो क्या ! जो मिल गया, उसे ही पका लिया । रचकी से मछली भी तो उसने उधार ही ली थी। पैसे या उसके बदले धान के लिए वह ज्यादा तंग नहीं करती है। दुकान से कुछ आलू-प्याज़ लाना चाहती थी पर ला नहीं सकी। पैसे भी तो नहीं हैं। करघे पर उसने सूत का ताना चढ़ा रखा था, पर
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224 / मृत्युंजय