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से पेड़ को पकड़े हुए कुछ देर तक तो सावधान रहा लेकिन धीरे-धीरे उसे ऊँघ भर आयी । थोड़ी देर में ही उसकी आँखे लग गयीं ।
टिको लौटकर आया। उसने रूपनारायण को जगाया, "लो, केले और चिउड़ा ले आया हूँ । खाओगे ?”
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त का आख़िरी पर था वह। आकाश में उल्लू पंख मार रहे थे । आँखें खोलने पर टिकी को देखते ही रूपनारायण सहम गया । अपराधी की तरह बोला :
"नींद आ गयी थो, रे ।” कुछ सावधान होते हुए पूछा उसने, “हाँ, बता क्या वात है ?"
"पहले खा ले। इस चोंगे में पानी भी ले आया हूँ ।"
रूपनारायण एक मुट्ठी चिउड़ा लेकर चबाने लगा। जब ख़त्म हो गया तो पानी पी लिया । फिर केला खाते हुए उसने टिकौ से पूछा :
" और तू ?"
"मैं कुछ नहीं खाऊँगा ।"
"क्यों ?"
टिको के दाढ़ी उग आयी थी । उस पर हाथ फेरते हुए उसने जवाब दिया : " कल जब आदमी को मरते देखा, तब से कुछ खाने का मन ही नहीं कर रहा है।"
"तो मारा ही क्यों था ?"
"मैंने नहीं मारा रे । केवल देख रहा था । दो व्यक्ति मारे गये थे ।"
"बस, बस, वह सब मत कह । मुझसे भी वह सब सहा नहीं जाता । हाँ, तो उनसे भेंट हुई?" “नहीं,”
," टिकौ ने कहा : "मेरे पहुँचने के पहले ही वे गिरफ़्तार कर लिये गये
थे ।"
"ओर बन्दूकें ?” रूपनारायण के कथन में एक विशेष उत्कण्ठा थी । "बन्दूकें गायन बॅरा के बगीचे में ही गाड़ दी गयी थीं ।"
" अच्छा । और जयराम ?"
"वह भी पकड़ा गया ।" "और ये शइकीया वग़ैरह ?"
"वे खोदकर बन्दूकें उठा ले गये ।”
" और अपने कैम्प के सभी नेता ?"
"वे सब पहले ही निकल चुके थे । शायद कहीं जंगल में छिपे हों ।" "अच्छा ।"
"अब क्या किया जायेगा ?” टिको नहीं समझ पा रहा था ।
220 / मृत्युंजय