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गये हों ! टिको शीघ्र लौटने की बात कह च ना तो गया, पर शायद उसे लौटना सम्भव न हो । उसे पहले ही सोच-विचार कर जाना था । सोनाई पार होते समय किसी ने ख्याल नहीं किया।
टिको के लौटने में एक घण्टा लग गया। लौटकर उसने रूपनारायण को बताया कि वहाँ एक भी जन नहीं है।
"नहीं है ?" "अब क्या किया जाये ?" "कहीं जाने के लिए कोई स्थान भी तो नहीं है।"
"हाँ, मैं भी यही सोच रहा हूँ। शइकीया जब तक लौट नहीं जाता, तब तक यहीं रुकना ठीक होगा। लेकिन..."
"लेकिन क्या ?" रूपनारायण ने जानना चाहा। "दधि और उसके साथियों तक एक खबर पहुँचा देनी होगी।" "पहुँचा भी सकोगे ?"
"हाँ, क्यों नहीं । सवेरे होते-होते लौट आऊँगा । यहाँ से पश्चिम की ओर एक घाट है। वहाँ से चमुआ गाँव मील भर भी तो नहीं है। पर वे सब होंगे कहाँ ?"
"गायन बरा के यहाँ ।"
"अच्छा, तब तू यहीं ठहर । मैं जल्दी ही लौट आऊँगा। तब तक छिपकर तू इन सबकी करतूत देख ।"
"अच्छा ।"
रूपनारायण के भीतर एक और प्रश्न बार-बार उठ रहा था । उसने टिको से पूछा : ___"तुम लोगों के पहरेदारों के होते हुए भी भला वे आ कैसे गये ? वे आ गये हैं, इसीसे मैं सब समझ गया। सुनो, तुम दधि और मधु को मायङ तक लौट जाने के लिए कह देना । वहाँ भी जोड़े-जोड़े आदमी पकड़े गये हैं। बहुतों को शहर ले जाया गया है। रेल उलटने के बाद भी बहुत लोग पकड़े गये हैं।"
उच्छ्वास छोड़ते हुए उसने फिर से कहा, "भिभिराम और जयराम को इधर हो आने के लिए कहना । यहाँ से कहाँ जाना होगा, अभी तो केवल विधाता ही जानता है । ठीक हुआ तो यहाँ से सीधे कलियावर तक जाया जा सकता है।"
___ "हाँ । जा तो सकते हैं, किन्तु कलियावर जाकर क्या करेगे ? वहां तो मिलिटरी ने पहले से घेरा डाल रखा है। वहाँ छिपकर रहना आसान नहीं होगा । उल्टे जाल में ही फंस जाना पड़ेगा।"
टिको चला गया। रूपनारायण ने बन्दूक को कन्धे से उतार लिया। कारतूस वाली पेटी भी खोल ली। पेड़ की आड़ में बैठ एक हाथ से बन्दूक और दूसरे हाथ
मृत्युंजय | 219